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26 Oct 2023 · 2 min read

स्वर्गस्थ रूह सपनें में कहती

स्वर्गस्थ रूह सपनें में कह
वारिश को याद दिलाती है
********************
शिक्षा दीक्षा दिया यतन से
कड़ी मेहनत मजदूरी कर

पाला पोषा बड़ी जिम्मेंदारी
से सूखी रोटी दो जून खाकर

लिए सहारा उपवासों का
गरीबी अभाव मजबूरी का

जीवन तन बिता कष्टों में
सपना देख अफ़सर कुर्सी

कष्ट कंटो रह माँ ने अमृत
पिला नव संसार दिखाया

परिश्रम में निज सुख त्याग
तेरी उड़ान को पंख दिया है

चलते वक्त दोनो कह गए
बेटा निज चार धाम है मेरा

बेटी प्रेम करुणा की सागर
बड़े यतन निज बगिया में

रंगीन सुमन उगा सजाया
हँसता जीवन वैभव इनका

शिक्षा संस्कार पथ निर्देशक
देश गर्व अभिमान हो बेटा

परमात्मा ने मेरी सुनी पुकार
छोटा बड़ा आसन सम्मान दे

धर्म कर्म त्याग का मान बढ़ाया
वर्ष गुज़ार रहें दोनों स्वर्गवासी

देख तुम्हें परलोक में दुःखी
दम्भभरी बात पकड़ नादानी

जिस मांटी जन्म लिया खेल कूद
पढ़ लिख कुर्सी कठिनाई से पाया

पर घमण्डी बना अतीत विस्मृत हो
चकाचौंध दुनियां के दिखावे होड़

भूल गया त्याग तपस्या माटी का
क्या सोच पुरखोंने कष्ट उठाया

मेरी धरती मेरी खेतों की माटी
कनक पनीरी दलहन की फूलें

झोंके पवन दिशाएं कोस रहें
किन औलादों हाथ छोड़ गए

पद घमण्डी वैभव संपदा अंधी
ना कर्म किया ना बांट दिया मुझे

टुकड़े सही था किसी के अंश
आकर शोभा श्रृंगार उपज से

जीवन शैली समृद्ध बनाता
कण कण मेरी माटी दुःख दर्द

सहारा बन सकून गौरव पाता
औरों हाथों की कठ पुतली बन

कलेजा कट कट गिर रहा आज
अपनो के आने को निहार रहा

स्पर्श करो निज जन्म माटी को
अनुभव होगा पुरखों की श्रम

पसीना रक्त हृदय का धड़कन
महशूस करो दर्द बेज़ुवा रुह का

माँ माटी ने कितनी बार बुलाया
सविनय आमंत्रण से कह रही

बांट खण्डित कर सौंप दे मुझे
आया बैठा समझ नहीं पाया

ये इसने वो उसने बात कही है
औरत सी उलझन बेतुक मुद्दा

बड़ा छोटा यह वह मैं तू हो क्या
धमकी अहंकारी चमक दिखा

इसने उसने मैं तू की भंवर चक्रवात
गुमनाम छिपा ऊषा लालीआंचल में

छोड़ रहे तरकश के तीर जहरीले
छलनी हो रहे हैं बचपन अनोखे

वाणी तानों से कुछ नहीं मिला है
ताना-बाना छोड़ कबीरा चल बसे

छोड़ बड़ी यतन से झीनी झीनी बीनी
चदरिया चुभन पीड़ा से भरी नगरिया

मानव तन मिला चौरासी लाख यतन से
मैली मत कर जीवन मन निर्मल ड़गरिया

जिम्मेदारी से कितना दूर भागोगे
मेरी स्वर्ग समाधि पर सूखी फूल

कब तक बरसाओगे क्या ? तृप्त
हो जाऊंगा सुगंधहीन इन पुष्पों से

चंचल दम्भी स्थिर करों मन को
जग की रीत प्रीत समझ शीतल हो

दुनियादारी मत भूलजबावदेहीसे
ऋण चुका छोड़ यहीं सब एकदिन

अनजान दुनियां में जाना होगा
समझ सोच विचार करो मन में

संपदा वैभव नश्वर आनी जानी है
सत्य न्याय त्याग अमर पहचान
बनती इक प्रेरणा जगजीवन में ।
******************
तारकेश्‍वर प्रसाद तरुण

Language: Hindi
359 Views
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