स्वयं ही अभिव्यंजना है
संसार की हर गतिविधि,
स्वयं ही अभिव्यंजना है ।
तुम भले कुछ भी कहो,
याकि चुप रूठे रहो ।
वातावरण में घोल दी,
साँसो ने ख़द व्यजंना है ।
सृष्टि ही व्यंजित हो रही,
और मेरी व्यष्टि भी अब,
ख़ुद रक्तरंजित हो रही ।
कहाँ बचें पत्थरों से,
जब रहने ही लगे हैं ,
शहर में पत्थरों के ।
अब शारदे की इक शरण,
जग छोड़ बस उसका वरण।
सच्चे अर्थों में वही बस,
मेरी निज दुःख भंजना है ।
संसार की हर गतिविधि,
स्वयं ही अभिव्यंजना है ।
दीपक चौबे ‘अंजान’