स्वयं सहारा
स्वयं सहारा
सदा रहा है – दिया तले अंधियारा,
किन्तु दीपमाल दीपित उजियारा।।
स्वयं उठो और बढ़ते जाओ,
बन निज का स्वयं सहारा।।
निज विचारों की काट छांट कर,
कब तक रहे तूं बना बेचारा।।
स्वयं उठो और बढ़ते जाओ,
बन निज का स्वयं सहारा।।
प्रगति करने हेतु यदि सज्ज रहो,
बिना स्वास्थ्य क्या कर सकते हो।
नियमित दिन चर्या से मन-देह के,
चाहो सहस्त्र रोग हर सकते हो।।
नित उछलें कूदें योगी बनकर।।
फैला चहुंओर कुछ तो उजियारा।।
स्वयं उठो और बढ़ते जाओ,
बन निज का स्वयं सहारा।।
जिव्हा पर यदि अंकुश हो,
शुद्ध आहार चुन सकते हो।
विचार निग्रह का नियम बने,
आत्म उत्कर्ष कर सकते हो।।
शब्द स्वाद पर निग्रह कर,
महामानवों ने निजता को संहारा।।
स्वयं उठो और बढ़ते जाओ,
बन निज का स्वयं सहारा।।
कटुता मन बैर न पनपे,
नई ऊर्जा भर सकते हो।
यौवन – जरावस्था क्या होती,
स्व चिंतन अब कर सकते हो।।
सबको अपना मान कर,
क्या अपनी माटी का कर्ज उतारा।।
स्वयं उठो और बढ़ते जाओ,
बन निज का स्वयं सहारा।।
स्वस्थ शरीर और मस्तिष्क है,
तब तक ही कुछ कर सकते हो।
निष्क्रिय रह कर कभी चैन से ,
जी सकते हो न मर सकते हो।।
इस जरा देह में तूने बल पाकर,
दशकंधर को भी कभी पछाड़ा।।
स्वयं उठो और बढ़ते जाओ,
बन निज का स्वयं सहारा।।
यदि मन मस्तिष्क कमजोर रहा,
सिर्फ सदैव तुम डर सकते हो।
शास्त्रोक्त आचरण अपना लो,
तन-मन पातक हर सकते हो।।
उठा शास्त्र और अनुसंधान शस्त्र कर,
कदम ताल चल सारा विश्व हमारा ।।
स्वयं उठो और बढ़ते जाओ,
बन निज का स्वयं सहारा।।
कमलेश कुमार पटेल “अटल”
दिनांक : ०७/०९/२०१९