स्वप्न
हो कुछ ऐसा स्वप्न ।
चाहे हो दिवा स्वप्न ।।
सिर्फ हर तरफ शान्ति ।
तनिक भी नहीं भ्रान्ति
न राग हो न द्वेष हो।
मनुज से मनुज का केवल समावेश हो।।
ऐसा संसार ।
जहाँ हो खुशियाँ अपार।।
न कोई विभेद ।
न कोई क्लेश ।।
मनुज मनुजता से हो परिपूर्ण ।
मैं ऐसे स्वप्न की रखता हूँ चाह।
हो जिसमें परिश्रम की राह।।
न दुराचार न व्यभिचार।
केवल और केवल सदाचार।।