स्वप्न
हे स्वप्न सुंदरी
आती हो बार बार
कर नव श्रृंगार
हे नीलांभरी
देखूँ मैं तुमको
बारम्बार
हे श्वेतांभरी
तुम गगन की परी
उतरी धरा पर ऐसे
श्वेत हंसनी आयी हो
कर स्नान
मानसरोवर से जैसे
अर्ध निद्रा में
किसको मानू
किसको जानू
सत्य या असत्य को
यथार्थ के धरातल पर
तुमको या स्वप्न को
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सर्वाधिकार सुरक्षित /त्रिभवन कौल