स्वप्न से तुम
स्वप्न से तुम
नवगीत
सुशील शर्मा
व्योम से लिपटी धरा की
चेतना चिर
अधजगी सी।
मौन नीड़ों में निनादित
मन अनाहत वेदनामय ।
मैं अकिंचन व्यथित विरहित
तृषित क्षित अभिव्यंजना मय।
कौन भूले तीर जैसी
हृदय में गहरी लगी सी।
बादलों के चुम्बनों से
शुरू सावन की कहानी।
बरसती यादें तुम्हारी
लगें क्यों इतनी सुहानी।
कुछ तो बन जातीं दवा सी
आग जैसी
कुछ दगी सी।
लौट जाओ याद सारी
रात का अंतिम पहर है।
व्योमग्रासी शून्य का
अस्तित्व तेरा विरह है।
जब कभीदर्पण को देखा
स्वयं जैसी
तुम लगी सी।
अन्त:स्मित आँसुओं से
अन्त:संयत स्वप्न चुनते।
नियति के प्रतिरूप चेहरे
सृष्टियों के जाल बुनते।
स्निग्ध सपनों के कलश में
प्रीत सँवरी
सी पगी सी।