स्वतंत्र नारी
जब से नारी कुछ स्वतन्त्र हो गई है
लोगों की आँखों की किरकिरी हो गई है
जिसे सदा चरणों की दासी माना
जिसे बस सेवा, त्याग, ममता
की मूर्ति ही जाना
न जाने क्यों आज
वो अपने अधिकारों के लिए
खड़ी हो गई है?
और अधिकार भी क्या
पुरुष जैसा सम्मान !
मानव होने का अभिमान !
छि! छि! छि ! राम ! राम ! राम!
मूर्खा यह क्यों नहीं समझती
उसका सम्मान सुरक्षित है
केवल पर्दे में ।
अधिकार क्षेत्र है उसका
घर की चारदीवारी।
जा सकती है घर से बाहर
कमाने को धन, बँटाने को पुरुष का हाथ
किन्तु पुरुष की अनुमति हो उसके साथ।
कितना, क्या, किससे, कब बोले
पुरुष को होना चाहिए ज्ञात।
कब , क्या, कितना, क्यों किया खर्च
पुरुष को देना होगा हिसाब।
नारी है तू मूर्ख
कितना ही पछाड़ा हो
परीक्षाओं में पुरुष को
कितने ही गाड़े हो
सफलताओं के झंडे
पर फिर भी
है तो नारी ही न।
नारी वो भी भारतीय नारी
शालीन, सकुचाई, शरमाई, घबराई
पति को ईश्वर सा पूजती
यदि नहीं है तू वो
तो धिक्कार है तुझे
जीने का भला क्या
अधिकार है तुझे?
तो क्या हुआ, यदि गाली दी पुरुष ने
तो क्या हुआ, यदि पीटा भी कभी
अरे ! पुरुष है, अधिकार है उसका।
तू भी न ! खामखां देती है तूल
इन छोटी छोटी बातों को !
याद रख वो ही तो है
तेरा भाग्य विधाता।
उससे तेरा स्वामी-सेवक का नाता।
खुश रख उसे तो
खुलेंगे तेरे लिए स्वर्ग के द्वार।
निकल तो सही ज़रा
लक्ष्मण रेखा के पार
फिर तो अग्निदेव ही करेंगे
तेरा उद्धार।
यदि आप भी रखते हैं
ऐसे ही कुछ विचार
तो महाशय आपको
दूर से ही नमस्कार!
डॉ . मंजु सिंह गुप्ता