स्वच्छंद कला।
स्वच्छंद कला।
मैं कला हूं।
मुझमें कोई विकार नहीं,
मुझमें कोई अहंकार नहीं,
मुझमें कोई वासना नहीं,
मेरी कोई याचना नहीं,
मैं अतुल्य हूं।
मैं सबके मन में रमती हूं,
मैं सबके मन में बसती हूं,
जो,जैसे मुझे देखता है,
जो,जैसे मेरे लिए सोचता है,
जो,जैसे मुझे पुकारता है,
चाहे मुझे ललकारता है,
मैं…………..
सबके लिए यथावत हूं।
परतंत्रता की परछाइयों से दूर,
आडंबर और बुराइयों से दूर,
बुझी जोत को जलाने वाली,
सुप्तात्मा को जगाने वाली,
सहृदयों को सहलाने वाली,
स्वच्छंद प्रवृत्तियों से युक्त,
मैं निर्मल बला हूं।
मैं कला हूं।।।
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रचना- मौलिक एवं स्वरचित
निकेश कुमार ठाकुर
जिला- कटिहार (बिहार)
सं०- 9534148597