स्याह दीवारें !
अपनी धरती के क्षितिज से
कही भी देखता हूँ,
कीड़े-मकोड़े सी भागमभाग दिखती हैं
संबद्धता कहीं नहीँ,
सब टूटे दिखाई देते हैं
कोई बाहर से,
कोई अंदर से
बिजली के तार को पकड़ते
सभी में भय व्याप्त है
यहाँ खिलखिलाते दिलों की सतह
लाल मखमल सी लगती है
जो हाथ रखने पर
कालिख़ पोत देती है
उस दिवार पर चढ़ने को
सब उतारू हैं
जो बाहर से लुभावनी है
अंदर से नितांत स्याह !
– नीरज चौहान
(काव्यकर्म से अनवरत)