स्मृति की रेखाओं से (काव्य)
मेरे इस सूने मन में,
तुमने ही दीप जलाए।
इक आभा मन में देकर,
हो शून्य क्षितिज में छाए।।
मैं पा न सका था तुमको,
रह गई तम्मना बाकी।
क्यों छोड़ चल दिये हमको,
क्या रही याद न बाकी।।
तेरे शरीर की आभा,
जो अभी अधखिली ही थी।
क्यों त्याग दिया है तुमने,
जो अभी अनकही ही थी।।
तेरे उस चन्द्र वदन को ,
जो कली रूप में ही था।
अब पा न सकूंगा उसको ,
जो प्राण रूप मेरा था।।
मेरी नीरव आंखों से,
जो अश्रु पात होता है।
क्या खबर नहीं है तुमको,
कोई प्राण यहां खोता है।।
क्यों बुझा रहे हो मेरे ,
प्राणों की अंतिम ज्वाला।
आकर अब शून्य क्षितिज से,
पहना दो जीवन माला।।
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वह स्नेह भरी लतिका,
जो गले की माला थी।
आज दूर खड़ी है क्यों,
क्या व्यर्थ निकटता थी।।
मैं दिनमणि था उसका,
वह इंदुमती मेरी।
मेरे प्रकाश से जो,
पल्लवित हुआ करती।।
दिनकर की किरणों सी,
थी आभा जिसमें देखी।
क्यों लाजवंत होकर,
है क्रोध लिए बैठी।।
उस भुवन मोहिनी छवि पर,
न्योछावर प्रणय मेरा था।
खुद मदन धरा पर आकर ,
जिसका सिंगार करता था।।
नीलाम्बर जैसा आँचल,
था ढके स्वर्णमय तन को।
थी रवि की प्रथम किरण सी,
न भूल सकूंगा उसको।।
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मेरे क्षण भंगुर जीवन में,
वह ज्योति तरह थी आयी।
आकर इस शून्य हृदय में,
करुणा की बेल लगाई।।
मेरे प्राणों की रेखा,
जब क्षीण नजर आती थी।
आकर उस विकट समय में,
दिखला दी छवि बिजली सी।।
सावन की घटा घिरी थी,
झीनी थीं बूँदे पड़ती।
मेरे अंतर्मन की ,
ज्वालाएं फिर भी जलती।।
मैं अधिवासी उस घाटी का ,
जो दर्द में डूबी रहती।
तुम एक खिलौना माटी का,
जो मूर्ति बनी हो बैठी।।
सागर कल कल ध्वनि से,
था रोज यहां पर बहता।
मैं यहीं कहीं पर बैठा,
बस तेरी बाट जोहता ।।
ये धवल रेत कणिकाएं,
मेरे बिखरे मैन सी।
जीवन का सत्य दिखती,
बनकर पथदर्शी सी।।
ये शस्यश्यामला धरती,
जो विरह की शैय्या थी।
अब रेगिस्तान बानी है,
क्या व्यर्थ सहजता थी।।
मैं नीरव बदल सा,
चुपचाप यहां स्थिर हूँ ।
तुम झंझा युक्त तड़ित सी,
जाने कहाँ छिपी हो ।।
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मैं जान रहा हूँ यह भी,
तुम नहीं धरा पर अब हो।
पर हृदय मानता अब भी,
तुम यहीं कहीं विस्तृत हो।।
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