स्मृतियाँ
स्मृतियाँ
चंदन की तरह
सुवासित करती हैं स्मृतियाँ,
टूटती/बिखरती हूँ
रोने को कंधा ढूँढती हूँ
कंधा बन संभाल लेती हैं स्मृतियाँ,
एक एक दिन कर
वर्ष ग्यारह बीत गए
कोई दिन ऐसा नहीं
जब नयनों से अश्रु न बहे
रीत चुके मन को
भरती/सँवारती हैं स्मृतियाँ,
शब्द ही अब मित्र हैं
जो पीर उर की जानते हैं
आगे बढ़ कर हाथ थामे
अकथ वेदना को
शब्दों में ढालते हैं
जब लगे दूर किनारा
तारणहार बनती है स्मृतियाँ
है यही एकमात्र पूँजी
रखी है सबसे छिपा कर
गाहे बगाहे खोलती हूँ
उंगली पकड़ कर आपकी
बचपन की गलियों में
खिलखिलाते डोलती हूँ
उतर आते हो उस लोक से
जब बुलाती हैं तुम्हें स्मृतियाँ।
#डॉभारतीवर्माबौड़ाई