स्मरण और विस्मरण से परे शाश्वतता का संग हो
स्मरण और विस्मरण से परे शाश्वतता का संग हो,
ले चल मुझे भी उस पार वहाँ, जहां मृत्यु भी मस्तमलंग हो।
पारदर्शी से धरातल में हीं समाये सारे रंग हो,
आनंदस्वरूप हो हर संवेदना जहां, और नित्य बजते जलतरंग हों।
मनमौजी से फिरते बादल, हवाओं से करते व्यंग हों,
बिना डोर ऊंचाइयां छू जाएँ, ऐसी मन की पतंग हो।
वियोग अपनों का आये, ना ऐसा कोई प्रसंग हो,
मयूर क्रीड़ा करे उपवन में, और संबंधों में उमंग हों।
शिशिर की अलसाई धूप में, लुकाछुपी करती तितलियों का मोहक ढंग हो,
कहने- सुनने की आवश्यकता से परे, निःशब्दिता स्वयं में अंतरंग हो।
मासूम सांझ की अठखेलियों से, सुनहरा आसमां तंग हो,
हरसिंगार पसर रहा हो आँगन में, जिसकी खुशबू संग गूंजता मृदंग हो।