स्नेह
स्नेह
लक्ष्मण तीन दिन पश्चात नदी पार विवाह में राम का प्रतिनिधित्व करके लौटे तो उन्होंने जैसे ही राम के पाँव छुए , राम ने उन्हें गले से लगा लिया , राम की ऑंखें नम देखकर सीता ने कहा , “ तुम्हारे भैया को तुम्हारे बिना यह तीन दिन ऐसे लगे , जैसे तीन वर्ष हों। ”
लक्ष्मण की ऑंखें भी नम हो आई , “ सच कहूं भाभी , वहाँ इतने लोगों को इकट्ठा देखकर मुझे पहली बार लगा , हम लोग यहाँ जंगल में कितने अकेले हैं ।”
“ विवाह कैसा रहा ? “ राम ने पूछा ।
“ उनकी विवाह पद्धति वैदिक परंपराओं से प्रभावित नहीं थी , वह अपने जीवन को नियमों में बाँधने के पक्ष में नहीं हैं ।”
“ तो क्या वे हमसे अधिक सुखी हैं ? “ सीता ने पूछा ?
“ यह मैं कैसे कह सकता हूँ , हाँ उन्हें यह सुनकर बहुत आश्चर्य हुआ कि शक्तिवान होते हुए भी, पिता की आज्ञा मानकर भईया बनवास चले आए, वह एक ही जीवन में विश्वास करते हैं , और धनोपार्जन जीवन का लक्ष्य मानते हैं । “
“ और ?” राम ने कुछ पल की चुप्पी को तोड़ते हुए कहा ।
“ उनकी कलाओं में भी व्यक्ति मुख्य है , वे उसके भीतर की नकारात्मकता को स्वीकार करते हुए उसके अनुसार जीवन पद्धति को अपनाये हैं ।”
“ जबकि हम उस नकारात्मकता को अभ्यास द्वारा सकारात्मकता में बदलकर जीवन को अनंत समय के साथ जोड़ना चाहते हैं , उसके लिए हम ऐसा समाज चाहते हैं जिसमें व्यक्ति के हित और समाज के हित एक हो जाएँ। ” सीता ने कहा ।
“ जी भाभी। ”
सीता ने देखा राम की दृष्टि कहीं दूर अपने विचारों में डूबी है।
“ चलो तुम पहले भोजन कर लो , भैया से बातें बाद में कर लेना। ” सीता ने लक्ष्मण से कहा ।
रात का समय था , राम भोजनोपरांत बाहर टहल रहे थे , लक्ष्मण ने पास आकर कहा ।
“ कोई चिन्ता भईया ? “
“ चिन्ता किस बात की , बस नदी पार के लोगों के बारे में सोच रहा था, तुम जानते हो वे अ्पना सामान बेचने जंगल के इस तरफ़ भी आते हैं ।” राम ने कहा ।
“ हाँ , और उनका सामान अयोध्या से बहुत उच्चकोटी का है ।” लक्ष्मण ने जैसे वाक्य पूरा करते हुए कहा ।
“ जानता हूँ उनके भौतिक विलास की कोई सीमा नहीं ।” राम ने अपने ही विचारों में खोये हुए कहा ।
“ वे मनुष्य को मनुष्य नहीं रहना देना चाहते , वे अंदर बाहर सब जगह यंत्रीकरण कर देना चाहते हैं ।” लक्ष्मण ने कहा ।
“ हुँ ।” राम ने गहरी साँस छोड़ते हुए कहा ।
“ आप इस बारे में क्या सोचते हैं ? “ लक्ष्मण ने पूछा
“ में इतना जानता हूँ सुख सुविधाओं की अपनी सीमा है , धरती की मनुष्य को दे सकने की अपनी सीमा है , जितनी भी मशीनें मनुष्य के भीतर डाल दी जाएँ , और उसकी शक्ति को हज़ारों गुणा बड़ा दिया जाये , फिर भी जो सूक्ष्म है वह दूर ही रहेगा , परन्तु यदि व्यक्ति का हित और समाज का हित एक हो जाये , तो मनुष्य का उद्विग्न मन शांत हो जायगा , और आवश्यकता से अधिक लेना उसका स्वभाव नहीं होगा , उसका यही ठहराव उसे संतुलित बनाएगा , और वह हर पल स्वयं को इस ब्रह्माण्ड का भाग अनुभव कर पायेगा। ” राम ने लक्ष्मण को देखते हुए कहा ।
“ आपकी बात उचित है भैया ,पर वे गलत हैं , हम यह भी तो नहीं कह सकते। ”
इतने में सीता ने बाहर आते हुए कहा , “ दोनों भाई किस चर्चा में व्यस्त हैं , चाँद को देखो , वो भी ठहर गया है ऊपर। ” सीता ने हाथ से इशारा करते हुए कहा। ”
दोनों भाई हस दिए , और दोनों की दृष्टि यकायक चाँद पर रुक गई।
उस शान्ति को तोड़ते हुए राम ने कहा,
“ यह प्राकृतिक सौंदर्य , यह शांति , यह हमारा स्नेह , यह परिपूर्ण है , शेष सब विखंडित है , और खंडन में कभी सुख नहीं होता , होती है मात्र चाह और पाने की , जिससे जन्मती हैं विषमतायें, इसलिए लक्ष्मण , उचित अनुचित की एक ही कसौटी है , क्या यह हमें शांति और प्रेम की ओर ले जा रही हैं या नहीं ? इसलिए मेरा पिता की आज्ञा मानना उचित था , तुम्हारा पत्नी से दूर यहां इसे अपना कर्तव्य समझ चले आना उचित है , सीता का मुझसे स्नेह होना , न कि मेरी सुख सुविधाओं से , उचित है। और कोई आश्चर्य नहीं कि, इसीलिए हम यहां राजधानी से दूर , अपने जीवन को सार्थक कर पा रहे हैं। ”
“ जी भैया , आपसे बातें करके मेरे भीतर के सारे संदेह मिट जाते हैं , और मन स्वच्छ हो खिल उठता है ।”
“ अच्छा , “ राम ने हँसते हुए उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, “ और जानते हो , तुम्हारे बिना यह कुटिया कैसे प्राणहीन हो गई थी !”
सीता उन दोनों का स्नेह देख गहरे संतोष का अनुभव कर रही थी ।
—- शशि महाजन