स्थायित्व कविता
ब्रह्मांड का हर कण दूसरे कण को
आकर्षित अथवा प्रतिकर्षित
करता रहता है सतत..
ताप,दाब और सम्बेदनाओं से प्रभावित
टूटता-जुड़ता हुआ
नये रूप अथवा आकर के लिए लालायित..
अस्तिथिर होकर
अस्थिरता से स्थिरता के खातिर तत्तपर..
दूसरे ही छन नए स्वरूप और
पहचान की कामना लिए
विचरित करता है
वन के स्वतंत्र हिरण की भांति
अपनत्व को खोजते हुए
अंधेरों और उजालों में..
थक-हार कर ताकने लगता है
ऊपर फैले नीले-काले व्योम में दूर तलक
एक ऐसी यात्रा की सवारी
जिसका अंत सिर्फ अनन्त है,
चलायमान है नदियों की नीर की तरह
जो सूख जाती हैं हर वैशाख तक अब..
सहता रहता है कुदरत के धूप-छांव
और दुनिया के रीतोरवाज..,
लड़खड़ाता-संभालता और
उलझता,सुलझता हुआ।
छोटे-बड़े कदमो से बढ़ता रहता है
स्थिरता की ओर..
तिनके से अहमब्रम्हाष्मी की विभूति तक..,
असंम्भव अभिलाषा लिए एक जातक की भांति
नीति अनीत विसार कर
सगे-सहगामी को विलग कर
अंततः संस्मरण और कल्पनाओं की अस्थायी स्थिरता का आलिंगन करता है