स्त्री
स्त्री
आज भी
ठिठकती है,
दहलीज़ पर
उदास होती है
खिड़कियों के पीछे,
निराशा घेरती है उसे
अपने हर प्रथम प्रयास में,
हताश हो जाती है वो
आगे बढ़ने से पहले,
गिर जाती है नीचे
सफ़लता की सीढ़ियाँ
चढ़ने से पहले,
गाँठ रिश्तों में पड़ जाती है
जब वो बाँधती है
अपने लिए
मन्नत के धागे,
स्त्री का स्त्रीवाद,,,
जाने क्यूँ नहीं बढ़ पाता,
लेखनी से आगे !!!!