“स्त्री”
सहनशीलता से भरा तन, ममता से भरा मन,
हर कष्ट हर दुख सहती है
हे नर! खुद से ना तुलना करो,
पुछो स्त्री कैसे रहती है?
वो नीर भरी दुख की क्या हाल जाने वो सुख की,
असहनीय उत्पीड़न के बाद भी,वो नदी की तरह,
कल-कल करके बहती है,
हे नर! खुद से ना तुलना करो,
पुछो स्त्री कैसे रहती है?
रखती तुझे कोख में नौमास क्या कभी तुम्हें हुआ
आभास?
पर्वतों की तरह,चट्टानों की तरह खड़ी अविचल रहती
है,
हे नर! खुद से ना तुलना करो,
पुछो स्त्री कैसे रहती है?
पाल पोश के कि बड़ा तुझे अपने पैरों पर कि खड़ा,
हो जाती वह परेशान लग जाये गर तुम्हें चोट जरा,
नारी की वह कंचन काया दिन प्रतिदिन कैसे ढहती है,
हे नर! खुद से ना तुलना करो,
पुछो स्त्री कैसे रहती है?
मत करो उसे अपमान नारी का रूप है भगवान्,
करो सदैव उसका सम्मान तुम इसे अकिंचन ना
समझो,
नारी है जीवन का वरदान है नारी सृजनहार,
सृष्टि की सृजन करती है,
हे नर! खुद से ना तुलना करो,
पुछो स्त्री कैसे रहती है?
सूर्य प्रकाश उपाध्याय
पटना (बिहार)