स्त्री बाकी है
स्त्री बाकी है
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मेरे अस्तित्व में जन्म ही से बाकी रही है स्त्री।
हर ही तत्व में सर्वांश शुन्य,बाकी रहती है स्त्री।
स्त्री शक्ति के जन्म का प्रारंभ है,शिव का संयोग है।
शक्ति शिव की शक्ति नहीं शिव का शक्ति-प्रयोग है ।
कहते अत: हैं शक्ति के बिना शिव केवल शव है।
शक्ति कर्म की गति,क्रिया का सामर्थ्य कर्ता का संकल्प है।
निर्धारित करती है सृष्टि का जन्म और ध्वंस, स्त्री।
विशालता से सारा कुछ विंदु में समाहित कर लेती है स्त्री।
विंदु को तोड़कर इतनी विशाल संचरना कर देती है स्त्री।
काल की अनंत यात्रा का प्रारंभ और प्रारंभ का अंत है स्त्री।
स्त्री व ब्रह्म,ऊर्जा और पदार्थ,शक्ति और शिव,सृष्टि और विध्वंश।
ब्रह्म क्यों? ऐसा प्रश्न ब्रह्म से बड़ा है,उत्तर ब्रह्म सा अति सूक्ष्म।
हिमवत्,अग्निसम,प्रकाशमय,तम आच्छादित सांध्य,भोर में ।
सुप्त व्योममय,जाग्रत सप्त सुर स्त्री कंठ में ध्वनित रोर में।
हर ज्वालामुखी के तरल आग में बची रहती है स्त्री अवश्य।
हर प्रलय के महा समाधि में बची रहती है स्त्री अवश्य।
स्त्री ही जन्म देती है सारे कण,कण को कर्म की प्रेरणा।
अत: संसार में जो है और जैसा है वह है स्त्रैण अवधारणा।
स्त्री अपने को दुहराती रहती है व्योम में तरंग रूप में अनाम।
स्त्री ब्रह्मांड के हर स्वरूप को समेटती है कालांतर में,विश्राम।
विस्तृत होती है पुन:, यह चक्र है ध्वंस और विनिर्माण का।
किन्तु,यह चक्र क्यों है अनुत्तरित; था,है,रहेगा बिना प्रमाण का।
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