स्त्रियाँ
स्त्रियाँ
वेग इतना कि वो पत्थर चीर निकलती है
कोमल इतनी कलकल छलछल बहती है
हर ढलान पे ढलती नदी सी होती हैं स्त्रियाँ
दो पाटों के बीच सिमटी सी होती है स्त्रियाँ
तकिये तले जब टूटे सपने रहते तिलमिला
पल्लू की गाँठ में बांधती बिखरा हौसला
चौखट के अंदर भी बुद्ध हो जाती हैं स्त्रियाँ
पिंजरे में भी आसमान नाप लेती है स्त्रियाँ
ऊब घर से छोड़ सब जाना चाहती कहीं
फिर भी ना जाने रह जाती वहीं की वहीं
रिश्तों में खोकर खुद को पा लेती है स्त्रियाँ
पूर्ण समर्पण का जश्न मना लेती हैं स्त्रियाँ
तपते सेहरा पर लिख आती नीला समंदर
एक पाँव जमीं पर तो दूजा असीम अम्बर
जुड़े में आशा के फूल गूँथ लेती है स्त्रियाँ
जीवन को ठिठोली सा जी लेती है स्त्रियाँ
टूटती है बिखरती है फिर है जुड़ जाती
मिट्टी में दबे बीज सी हर बार उग आती
हर दायरा तोड़ बढ़ती नभ ओर है स्त्रियाँ
गहन तम को चीर सुनहरी भोर है स्त्रियाँ
रेखांकन।रेखा
२०.१.२२