स्त्रियाँ नेह-रस सी होती हैं
नारियाँ प्रेम को जीती हैं
वो बिन प्रणय के भी
प्रेम कर सकती हैं…
प्रेमी के अभिसार को तरसती हुई
बरसों बसंत और सावन की
प्रतीक्षा कर सकती हैं…
प्रेम के रक्त वर्ण में रंगी
गुलमोहर सी
सदा अमलतास में घुलना चाहती हैं…
वो बिन सिंचे भी
हरसिंगार सी महकती रह सकती हैं
पतझड़ में भी खिली रह सकती हैं…
स्त्रियाँ सदैव प्रेम में रहती हैं
उन्हें भले ही कोई न समझे
पर पुरुष उनके प्रेम को तरसते हैं…
वो प्रेम के लिए श्रृंगार करती हैं
अनदेखी नज़रों से भी
उनके कपोल गुलाबी हो जाते हैं…
स्त्रियाँ बार-बार प्रेम में डूबती हैं
पर हर बार उनकी चाहत
उसी प्रेमी के लिए होती है
जो उसे विश्वास नहीं दे पाता…
स्त्रियों के लिए प्रेम साधना है
वो सर्वस्व समर्पण कर देती हैं
और वियोगिनी सी जी लेती हैं…
स्त्रियाँ नेह-रस सी होती हैं
प्रेम उनका स्थाई-भाव है,
तभी वो चाहती हैं, सदा प्रेम में
तथागत सी यथावत रहना।
रचयिता–
डॉ. नीरजा मेहता ‘कमलिनी’