स्कूल के बच्चे कैसे है
स्कूल के बच्चे कैसे सीखेंगे
बात 1998 की है , एक भील आदिवासी के इलाका मजरा ठोला में इ जी एस शाला में गुरूजी के पद पर मेरी नोकरी 17/8/1998 से लगी थी ,वो इलाका एक जंगल से गुजरता हुआ जाता था वहां न कोई रास्ता और न ही कोई पगड़न्ड़ी थी फिर भी में 500रुपए में नोकरी करना मंजूर कर लिया था , साइकिल से 8 धुमावदार मोड़ घाट पार करते हुए रतनगढ़ से 12 किलों मीटर से जाना भी मुझे कतई परेशानी नही थी , वहा के भील आदिवासी बच्चे 25 थे ,उन्होंने कभी स्कूल भी नही देखा था तब वहां भंवन भी नही था ,मै एक पेड़ के नीचे एक पत्थर पर बैठकर पड़ा था , मेरे पास एक चाक ,रजिस्टर थाऔर एक घण्टी जो पेड़ पर लटका देता था और जब बजाता था दूर दूर तक आवाज जार्ती थी और बच्चे जंगल में कही भी हो दौड़कर आजाते थे और वो मेरे लिए क्रमन्दा ,गोंद लाते थे और में स्थानीय वस्तु से पढ़ा था कभी गिनती ,पहाड़े ,तिनको के सहारे पढ़ा था , और वो बच्चे आज बहुत बढे हो गए और अपने पैरों पर मजबूत भी है ।अब रोड़ ,भंवन भी बन गए तब में यहाँ ताल आ गया ,
तभी से मेरे मन में टी एल एम् से पढ़ाने की विधि विकसित हुई और में इसी में प्रयासरत भी हू और कलम से वही से काव्य रस में लिखना शुरू हुआ ।
जब हम आदिवासी बच्चो को पढ़ाने में हर तरफ से सक्षम है तो क्यों न हम सब सर्व शिक्षा अभियान की ज्ञान गंगा में बच्चो के पालकों को बारीक बारीक रूप से भोले भाले ग्रामीण वासियों को समझाकर
लाने का लक्ष्य तक तम को मिटाते हुए अक्षर अक्षर तक पार कराए ।
न कि हम शासन पर निर्भर रहे ।
✍✍पी एस ताल