‘सौदागर’
‘सौदागर’
वो महबूब नहीं इक सौदागर था,
दिल को बिल्कुल ये मालूम न था।
उसकी बातें लगती थी जादू सी ,
पर अंतरमन छल से लिपटा था।
दिल उसका चालाकी का घर था,
वो महबूब नहीं इक सौदागर था,
पावन प्रेम नहीं वो जान सका,
उसको दिल नहीं पहचान सका।
तन-मन-धन उस पर वार गया,
पर खोटी नीयत नहीं तान सका।
माना उसको अपना दिलबर था,
वो महबूब नहीं इक सौदागर था।
हर मुलाकात को उसने मोला था,
और प्रेम को दौलत से तोला था।
मासूम हृदय बन गया उसका दास ,
करने लगा वही जो वो कहता था।
हाथों में धोखे का उसके नस्तर था,
वो महबूब नहीं इक सौदागर था।