सौतेले शब्द
धीरे-धीरे कुछ शब्द जैसे
भ्रष्ट-भ्रष्टाचार, अन्याय-अत्याचार
अपने काव्यकोष प्रयोग से
कम कर रहा हूँ
शब्दों के विपक्षी बहुत कम रह गये
पक्षधर ज्यादा हैं, कुछ खुलकर
ज्यादा भीतर भीतर दीमक की तरह
इन भावनाओं को बहुमत ज्यादा है
इन शब्दों का अब चलन ज्यादा है
आम हो गया परंपरा परिपाटी सा
रोजाना की जरूरतों में
खटकने लगा है इनका अभाव
ठीक नहीं इन शब्दों भावों के प्रति
अस्पृश्यता या सौतेलापन
कुछ अलग सोचना, कहना
ऐसे आम अल्फ़ाज़ को
पचा चुका है मेरा अंतःकरण
कानों में घुल चुके हैं ये शब्द
मायने बदल चुके हैं वर्णमाला में
बकायदा इज्जतदार हो चुके हैं
अब परहेज नहीं जरूरत है इनकी
अब भ्रष्ट भ्रष्टाचार शब्दों का
नीच भाव से उच्चारण हो पड़ना
मित्रों से दरार कराता है
समाज की नजर में गिराता है
अकारण ही मुझे
अनपढ़ असभ्य बना देता है
जिन्दगी की दौड़ में पिछड़ा देता है
मैं उपहास का पात्र नहीं बनूंगा
अब धीरे धीरे भ्रष्ट भ्रष्टाचार जैसे
शब्दों को युगानुरुप आदर्श मान लूंगा।
-✍श्रीधर.