सो मिल गया है आज मुझे दार, क्या करूँ?
हूँ जामे चश्म तेरा तलबगार, क्या करूँ?
तक़्दीर से पै आज हूँ लाचार, क्या करूँ?
कोई तो आह! शौक से मारा नज़र का तीर
जी चाहे गो के फिर भी पलटवार क्या करूँ?
तू देख गर तो जी मैं तुझे कबका दे चुका
वैसे भी और बोल मेरे यार, क्या करूँ?
माना के एक बार किया था गुनाहे इश्क़
यारो वही गुनाह मैं हर बार क्या करूँ?
ग़ाफ़िल हूँ मैं इसीलिए शायद क़फ़स था कम
सो मिल गया है आज मुझे दार, क्या करूँ?
(क़फ़स=पिंजड़ा, दार=फाँसी)
-‘ग़ाफ़िल’