सोनचिरईया कहाँ हो तुम
कहाँ कहाँ न ढूंढा
कहीं न मिली वो
कभी आ खिड़की से
झांकती थी वो
बड़े प्यार से
बुलाती थी वो
कभी घरोंदा
बनती थी वो
कभी दाना
चुगती थी वो
कभी खुले
आसमां में
उन्मुक्त
उड़ती थी वो
बहुत तमन्नाएं
रखती थी वो
जाने कहाँ
गुम हो गयी वो
तरसता हूँ
देखने के लिए उसे
शायद मिल जाए
कहीं वो
मेरी प्यारी
सोनचिरईया
स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल