“सोज़-ए-क़ल्ब”- ग़ज़ल
इक तबस्सुम को, हम नज़रों मेँ, लिए बैठे हैं,
अश्क़, उसके हैं, सो मुद्दत से, पिए बैठे हैं।
हमको, बातिल से, हमेशा से, है रही नफ़रत,
क्या बताएँ भी, कि दिल, किसको दिए बैठे हैं।
पूछते सब हैं, कि आख़िर, हमें हुआ क्या है,
सोज़-ए-क़ल्ब, को हम, ज़ब्त, किए बैठे हैं।
उसका रुसवा, नहीं मँज़ूर, किसी हाल हमें,
लबों को अपने, इक अहद से, सिए बैठे हैं।
दुश्मनी, दोस्त निभाएंगे, कहाँ तक हमसे,
दर्द को उसके, ज़माने से, जिए बैठे हैं l
तीरगी का, न कोई ख़ौफ़, अब हमें “आशा”,
दिल मेँ चाहत के, जलाकर के, दिये बैठे हैं..!
तबस्सुम # मनमोहक मुस्कान, a pleasant smile
बातिल # झूठ, false
सोज़-ए-क़ल्ब, # दिल का दर्द, agony of heart
ज़ब्त # बर्दाश्त, restrain
रुसवा # बदनामी, insult
अहद # एक दीर्घ अन्तराल, a pretty long interval
तीरगी # अन्धकार, darkness