सोच
सोचता हूँ जब कभी
शून्यता के अक्ष पर
एकांत में शान्त से
गंभीरता के भाव से
दिनकर क्यों दिन भर
अथक असहनीय असीमित
अधिकतम तापमान में
क्यों तपता है, जलता है
शायद मानव स्वभाव के
क्रोध के वेग को थाम कर
आवेश नियन्त्रित कर
सरल सरस करता हैं
स्वयं को कुर्बान कर
फिर तारे क्यों अर्द्धरात्रि को
टिम टिमा कर टमकते हैं
शायद आराम करते मनुज के
मष्तिष्क में ग्यान का प्रकाश
अग्रिम अग्रसर प्रेरता है
स्वयं की प्रेरणा से
फिर सरिता की जलधारा का
कहाँ से कहाँ तक का
क्षितिज क्यों न दिखता है
शायद यह भी प्रेरक है
न रूकने का न थकने का
न ठहराव का न विराम का
सदैव आगे बढ़ने का
फिर चाँद क्यों दुधिया चाँदनी में
निशा मे मद्धिम मद्धिम
दुधिया सी रोशनी में
शालीनता से प्रकाशमान
शायद प्रतीक है शान्ति का
मन को शांत रखता है
और यही प्रकृति की
अद्वितीय रचनाएं जो कि
आधार हैं, स्तम्भ हैं,अप्रत्क्षित
मानव की संरचना को
सार्थक और पूर्ण करती हैं
और अन्तर्मन पनपपती
अनगगणित भावनाओं को
जीवन पर्यन्त जिन्दा रखती
-सुखविन्द्र सिंह मनसीरत