सोच सम्मोहन और हकीकत
जिनकी सोच प्राकृतिक नहीं होती है,
वे सदा से यही सोचते आएं हैं,
विचार वा विवेक सिर्फ उनकी बपौती है,
कूटनीति उनका ही खेल है,
वरन् सबको मालूम है,
ये जीवन दो दिनों का मेला है,
बाकि सबने तो झेला है,
पर समय कहां स्थाई टिकता है,
अर्श को फर्श पर,
फर्श को अर्श पर स्थान देता है,
पाखंडी बिखर जाते है,
विवेकशील निखर कर फैल जाते है,
मतलब को ढ़ोंग बहुतेरे,
लगा बछड़े को ..धोकर पानी से,
झट से बाल्टी दूध से भरते है,
इस विध सुना ज्ञान और बोध-कथा,
इंसान को गहरी निंद सुलाये है,
कष्ट कमाई पर अधिकार जमा कर,
स्मार्ट-वर्क पर अपना वर्चस्व जमाए है,
दो दिन मुश्किल-भरे देखकर
शनि की ढैइया और साढ़े बता कर,
खुद की नैइया पार लगाई है,
जिनकी सोच प्राकृतिक नहीं होती है,
वे सदा से सोचते आएं हैं,
जो फैला हुआ सौंदर्य लटा-छटा…
मुझे मिला सबको मिले…
ऐसा राज किसी को नहीं सिखाए है,
डॉ महेन्द्र सिंह
महादेव क्लीनिक,
मानेसर व रेवाड़ी,
हरियाणा,