सोच मेरी
लगता है तुम्हें कि थोड़ी अलग है सोच मेरी
हाँ मानती हूँ, चीजों को देखने का नज़रिया अलग है थोड़ा मेरा,
तुम्हें तकलीफ़ है विरोध के हर तरीक़े से मेरे,
मानते हो तुम कि अन्य स्त्रियों की तरह आवाज़ रहे हमेशा धीमी मेरी
और स्त्रियों की तरह सहनशक्ति बड़ी हो मेरी,
कैसे सोचा तुमने?
जो राय होगी तुम्हारी वही होगी मेरी,
तुम्हारे दिए या बनाए फ़्रेम में जड़ी हो तस्वीर मेरी,
या ढल जाए तुम्हारी मर्ज़ी के साँचे में मर्ज़ी मेरी,
कैसे सोचा तुमने?
जो तुम सोचो वही सोच होगी मेरी,
जो नज़र होगी तुम्हारी वही नज़र होगी मेरी,
जो तुम बोलो वो ही बोली होगी मेरी,
कैसे सोचा तुमने?
मैंने तो हर पल चाहा साथ चलना,
मिल कर बैठना साथ तुम्हारे,
और बनाना एक ख़ूबसूरत दुनिया तेरी-मेरी,
हमेशा बनाती उस दुनिया के मानचित्र मैं,
और तुम गढ़ते रहे तन की तस्वीर मेरी,
तुम बनाते रहे योजनाएँ मेरे शरीर तक पहुँचने की,
मैं बुनती रही भावनाओं की रंगीली दुनिया तेरी-मेरी,
मेरी उन्मुक्त हँसी का निकालते रहे ग़लत अर्थ,
मेरी मुस्कुराहटों को निमंत्रण मानते रहे सदा तुम,
समझ न सके उसके पीछे की निश्छलता मेरी,
मुझे लिखने की बजाय तुम लिखते रहे बाज़ारू शायरी,
और सोच भी लिया कि शायद यही है पसंद मेरी,
जब भी कभी बतानी चाहीं तुम्हें मैंने भावनाएँ मेरी,
तुम उन्हें मोड़ देते नितांत निजी भावनाओं की ओर,
और तोड़ देते निजता की बाँध मेरी,
जब भी कभी तल्लीन होती मैं,
बनाने को एक तस्वीर दुनिया की तेरी-मेरी,
तो तुम्हारे भीतर बैठा पुरुष,
लगाता रहता अंदाज़ा तन के भूगोल की मेरी,
तो क्यूँ मैं तुम्हारे साथ बैठ कर हंसूँ-खेलूँ
जैसे सोचो तुम वैसे करूँ या सोचूँ,
तुम्हारे बारे में असली सोच बदलूँ मेरी,
कैसे न हो थोड़ी अलग सोच मेरी,
कैसे करूँ धीमे से प्रतिकार,
जब अंदर से चीख रही हो आत्मा मेरी….