सोचो जरा…….
ये हमारी संस्कृति है,
कोई नहीं विकृति है।
समझ नहीं पाये हम ही,
समझ गए कुछ और ही।
घर को लगे भूलने,
बाहर लगे तांकने।
भागने लगे बेकार दौड़ में,
पैसा कमाने की व्यर्थ होड़ में।
न दिन देखा न रात,
करनी अपनी बात।
चक्कर में हमारे आ गये सब,
पशु क्या पक्षी बेबस हुए सब।
ब्रह्ममुहूर्त शब्द हुए बेमानी,
जल्दी सोना तो पिछड़े की निशानी।
क्या चाहिए था उनको अब,
डेरा जमाया विषाणु तब।
बीतता गया जीवन यूं ही,
आदत बेमतलब यूं ही।
पर प्रकृति ने हमें सीखाया,
कोरोना के माध्यम से चेताया।
मत खेलो अपनी संस्कृति से,
बच लो अनचाही विकृति से।
योग, प्राणायाम में बहुत कुछ है,
सादे खाने के आगे तो सब तुच्छ है।
समझो हाथ जोड़ने में भलाई है,
न इसमें कहीं कोई करूणाई है।
वक्त की तो यही पुकार है,
वैसे सभी समझदार हैं।
इम्युनिटी बढ़ाने के हकदार हैं,
हम सिर्फ संस्कृति के पैरोकार हैं।।