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13 Feb 2022 · 1 min read

आक्टोपस

सैंकड़ों ग़ोते समन्दर में लगाए हैं
तब कहीं दो-चार मोती हाथ आए हैं

ज़िन्दगी अपनी भी जैसे “ऑक्टोपस” हो
रंग इसने भी उसी जैसे दिखाए हैं

अक़्ल आती है कहां बादाम खाने से
धोखे अपनों से हज़ारों बार खाए हैं

जंगली फूलों का रखवाला नहीं कोई
हौसला फूलों का है जो मुस्कुराए हैं

दर्द मेरा भी समझ ऐ नींद के मालिक !
आंख में सपने बड़ी मुश्किल से आए हैं

शिवकुमार बिलगरामी

1 Like · 184 Views
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