सेवा से ही दिवत्व की अनुभूति – आत्मसंतोष
सेवा से ही दिवत्व की अनुभूति – आत्मसंतोष
आज के संचारक्रान्ति के एवं विज्ञान युग में जहाँ मानव सुख – सुविधापूर्ण एवं ऐश्वर्य का जीवनयापन कर रहा हैं , उसी प्रकार से अनेकों रोगों से ग्रस्त व श्रम न करने की प्रवृत्ति इससे आलस्य जीवनयापन कर रहा हैं । जिसके विपरित ऐसै अनेक धन संपन्न लोग हैं , धन दौलत से – ऐश आराम से ऊब चुके हैंं, उन्हें दिव्यत्व का एवं कुछ विशिष्ट कर दिखाने के लिऐ सेवा ही ऐसा माध्यम हैं जिससे उनकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं । भावना निस्वार्थ हो जाती हैं । मानसिक संतोष मिलता हैं । समाज में नाम रोशन होता हैं , राष्ट्रीय कर्त्तव्य का पालन होता हैं । अनेक लोग कहते हैं कि मैं अपने कर्त्तव्यौं में इतना व्यस्त हूँ कि सेवा के लिऐ समय ही नही मिलता हैं । ठीक हैं , लेकिन आपको जब भी अवसर मिले आप अवश्य जुड़े । कहते हैं कि ” एक-एक बुंद से ही सागर बनता हैं ”
हमें अपना कर्त्तव्य पूर्ण ईमानदारी से करना हैं , नहीं तो सेवा भी ढोंग हो जाऐगी । लाभ कमाने की आदत छोड़ना पड़ेगी । जैसे एक शिक्षक अपने विद्यार्थियों को लगन , मेहनत और वास्तविकता के साथ अच्छे तरह से पढ़ा रहा हो , तो यह सेवा हैं । व्यापारी अपना व्यापार नैतिकता के साथ करता हैं तो वह सेवा ही हैं । शोषण करता हैं यह सेवा नहीं हैं ।
समाज में जब भी जहाँ भी अवसर मिले , सेवा करो । सेवा किसी की व्यक्तिगत सेवा तक सीमित न हो , समाज सेवा भी सेवा ही हैं । कोई भी कार्य जिससें राष्ट्र लाभान्वित होता हो, सेवा हैं । व्यक्ति को सेवा से दिवत्व की अनुभूति करना चाहिए । सेवा के लिऐ आपको कीसी की सलाह, सुरक्षा या बचाव की आवश्यकता नहीं हैं । जहाँ भी आवश्यक समझें सेवा करें । सेवा कार्य में कोई भेद नहीं हैं । आप जिसकी सेवा कर रहे हैं वह गरीब हैं या अमीर यह महत्त्वपूर्ण नहीं हैं ।
आपको किसी की भी कही भी , और किसी भी परस्थितियों में सेवा करनी चाहिए ।
आज के विपरित परस्थितियों में हमें सेवा भाव का अच्छा मौका मिला हैं , हमें अपने देश के लिए निर्देशों का पालन कर , घर से 21दिनों में विचारों का मंथन कर परिवर्तन करना हैं ।
– राजू गजभिये ( हिंदी साहित्य सम्मेलन )