सेल्फी दिवस पर
सेल्फी दिवस 21 जून पर विशेष :
#पण्डितपीकेतिवारी
मी,माय सेल्फ एंड माय किल्फी आज की सेल्फी
21 जून को सेल्फी डे है। बच्चे का जन्म हुआ तो उसके साथ सेल्फी और घर में मौत हुई तो अर्थी के साथ सेल्फी। सेल्फी के इसी बढ़ते क्रेज को देखते हुए 21 जून को सेल्फी डे के रूप में मनाया जाता है। सेल्फी की दीवानगी ने इसे ऑक्सफोर्ड वर्ड ऑफ द ईयर भी बना दिया है। विदेशों में तो तलाक से पहले अब सेल्फी लेने का ट्रेंड शुरू हुआ है, जिसे डायवोर्स सेल्फी का नाम दिया गया है। लापरवाही से हो रही हैं मौतें : देश के युवाओं में सेल्फी का जुनून इस कदर हावी होता जा रहा है कि लोग सेल्फी के चक्कर में अपनी जिंदगी की कीमत तक को भूल गए हैं। हमारे देश के लोगों में जितना सेल्फी प्रेम है, वहीं सेल्फी सुरक्षा के मामले में भारत दुनिया के बाकी देशों से काफी पीछे है। पिछले साल देश भर में सेल्फी लेने के दौरान करीब 27 मौतों की खबर सामने आई। यह जानकर हौरानी होगी कि इन 27 में से आधी मौतें सिर्फ भारत में हुई हैं। इनसे बचें तेज लहरों वाले पानी में जाकर सेल्फी न लें ऊंचाई पर कोने में जाने से बचें किसी भी आग वाली जगह पर करीब न जाएं बीच रोड में जाकर सेल्फी न लें रेलवे ट्रैक के बीच जाकर सेल्फी लेने से बचें चलती ट्रेन या बस के गेट से सेल्फी न लें
सेल्फी एक राष्ट्रीय रोग है। कौन सा रोग है यह अभी तय नहीं हुआ है, मगर रोग है। इस रोग के शिकार संयुक्त राष्ट्र संघ के ज्यादातर सदस्य देश के नागरिक हो गए हैं। स्मार्ट सिटी से पहले पहुंच चुके स्मार्ट फोन ने दुनिया को सेल्फीग्रस्त कर दिया है। सेल्फी को लेकर दुर्घटनाएं हो रही हैं। इन्हें सेल्फीग्रस्त कहा जाना बाकी है लेकिन सेल्फी अपने आप में शब्द के रूप में आक्सफोर्ट डिक्शनरी में जगह पा चुकी है। सेल्फी ने मुख मुद्राओं से लेकर तमाम मुद्राओं में आमूलचूल परिवर्तन कर दिया है। थोबड़ा हसीन हो या ग़मगीन हो, हर मौका सेल्फी है। सेल्फी ने दुनिया भर में देखने और देखे जाने के तरीके को बदल दिया है। इस साल के सत्यानाश होने के मौके पर हमने सोचा कि क्यों न सेल्फी पर बात की जाए। पहले हम व्यू फाइंडर से लेंस में देखा करते थे, अब लेंस से व्यू फाइंडर की तरफ देखने लगे।
लेंस में ठीक से दिख जाएं इसके लिए हम अपने घुटनों पर दबाव देकर उन्हें कभी थोड़ा तो कभी बहुत ज़्यादा झुकाने लगे। हाथ को इतना खींचा, खींचा कि फोन जहां तक पहुंचा उससे आगे ले जाने के लिए सेल्फी स्टिक आ गई। सेल्फी की आदत ने हमें ऊंचाई, लंबाई, चौड़ाई और मोटाई के प्रति सजग कर दिया। दुनिया और परिवार के बीच एडजस्ट होने से रह गए लोग फ्रेम में एडजस्ट होने के लिए तरह-तरह की मुद्राओं का विकास करने लगे। किसी ने एड़ी उचकाई तो किसी ने कंधे को झुका दिया। आदमी, आदमी पर झुकने लगा, जैसे-जैसे फोन ऊपर उठता, फ्रेम में समा जाने की चाहत वाला नीचे झुकने लगता। मुखड़े का जुगराफिया भी सेल्फी के साथ बदलने लगा। होठों पर बहुत ज़ुल्म ढाये गए। किसी ने बत्तख की याद में होठों को समेटा तो किसी ने मुखमंडल पर कबूरत से लेकर मुर्गी की चोंच बना डाली। वो वक्त चला गया जब लोग फोटू खिंचाते वक्त दांतों को पसारते थे, होठों को खुला छोड़ते थे। अब तो सब कुछ मुंह बिदकाने जैसा हो गया है। खचाक फचाक क्लिक-स्लिक। इन सब मुद्राओं की कल्पना हमारे बड़े बड़े योग गुरु न कर सके। आदमी फोन खरीदता गया, सेल्फी के लिए मुद्राओं का विकास करता चला गया।
सेल्फी हमारे दौर की एक ऐसी मूर्खता है जिसे बड़े-बड़े विद्वान भी समझ नहीं सके क्योंकि बड़े-बड़े विद्वान भी सेल्फी खींचाते हैं। सेल्फी ने हमारे सेल्फ को पहली बार दुनिया में प्रतिष्ठित किया है। इससे पहले सेल्फिश होना स्वार्थी होना बुरा माना गया। सेल्फी आई तो उसने अपने सेल्फ से फिश को दूर ही रखा। सेल्फी दुनिया की अकेली मूर्खता है जिसमें स्वार्थ का तत्व नहीं है। सेल्फी में जल्दी-जल्दी ही एकल आत्मा की जगह आत्माओं के समूह समाने लगे। इन्हें ग्रुपी कहा जाने लगा। फ्रेम मैदान हो गया। जिसे जहां से मन किया वहां से घुस आया।
सेल्फी अगर एकल परिवार है तो ग्रुपी संयुक्त परिवार की याद दिलाती है। मार्च 2014 के आस्कर पुरस्कार समारोह में ब्रेडली कूपर ने ग्रुप सेल्फी ली। इस फ्रेम में इतने लोग आ गए कि इन्हें पहचानने के लिए लोग अपने अपने मुल्कों में पता करने लगे कि अपने यहां का कोई है या नहीं। ब्रेडली हीरो है और उसके इस सेल्फी ट्वीट को 33 लाख लोगों ने री ट्वीट किया था। बीमारियों में एक खास बात है। वे फैलती बहुत जल्दी हैं। इस ग्रुपी को लेकर नुक्ताचीनी भी ख़ूब हुई। दि सिम्पसन अमरेकिा का एक मशहूर एनिमेशन टीवी सीरीयल है। इसने ब्रेडली कूपर की ग्रुपी पर तंज कसते हुए ये कार्टून बनाया। इस कार्टून में ब्रेडली कूपर एक व्यक्ति के कंधे पर अपनी लात रखकर सेल्फी का फ्रेम बना रहा है। इसे मात्र 60 हजार बार री-ट्वीट किया गया। तब सेल्फी की लोकप्रियता के सामने उसके आलोचकों की चल नहीं पा रही थी। पर अमरीका में हो जाए और भारत में नकल न हो, ऐसा हो नहीं सकता। अमरीका से प्रेरित होकर भारतीय कलाकारों के फ्रेम में फैन्स की बारात घुसने लगी।( यहां अमिताभ बच्चन वाला ग्रुपी लगाना है) किसी किसी फ्रेम में स्टार ने बाकी स्टारों को घुसा लिया। हर फ्रेम पहले फ्रेम से बड़ा होता गया।
कारपोरेट कंपनियों को लगा कि सेल्फी की बड़ी बहन ग्रुपी के प्रभाव में कर्मचारी सैलरी और प्रमोशन भूलकर टीम भावना के कच्चे धागे में बंध जायेंगे। आप जानते ही हैं कि कंपनियों में कम तनख्वाह पाने वाले कर्मचारियों को मनोवैज्ञानिक तनावों से बचाने के लिए प्रोफेशनल होते हैं। मुझे नहीं पता कि इन मनोवैज्ञानिक प्रोफेशनल की सैलरी ठीक होती है या नहीं पर क्या ये कम बड़ी बात नहीं कि अपनी सैलरी का दर्द भूल कर भी ये कम पानों वालों का सहारा बन जाती हैं या बन जाते हैं।
तो कसम टीम भावना की, कंपनियों की हाफ डे वाली पिकनिक पर ग्रुपी का चलन बढ़ने लगा। एक फ्रेम में ऊंच नीच का भाव त्याग कर सब आ गए। जितना अट सकें वो अटे बाकी आटे की तरह कनस्तर के ढक्कन के इर्द गिर्द छिटके मिले। इन सब तस्वीरों से टीम भावना का विकास हुआ या नहीं, ये मैं नहीं कह सकता न ही मेरा वो मकसद है। आधुनिक मानव समाज का यह समूह गान वाकई नया और अदभुत लगा। आदमजात ने सेल्फी का स्वागत किया और इसके चक्कर में कुछ गिरे तो कुछ पड़े रहे मगर क्लिक होने के इंतज़ार में किसी ने कोई शरारत नहीं की।
ऐसा नहीं था कि सेल्फी और ग्रुपी से पहले ग्रुप फोटो का चलन नहीं था। आप सब जानते हैं कि स्कूल और कालेज या ट्रेनिंग पूरी होने के अंतिम दिन पहले एक बेंच को बेंचमार्क बनाया जाता है। कुछ लोग बेंच के पीछे खड़े रह जाते हैं। कुछ बेंच पर बैठते हैं और कुछ बेंच के नीचे। जो बच जाते हैं वो बाद में किनारे-किनारे से एडजस्ट कर दिए जाते हैं। ऐसी तस्वीरें अल्बम में सीलन की शिकार हो जाती हैं या ड्राईंग रूम में टंगी रह जाती हैं। इन दिनों लोग फेसबुक पर पोस्ट करते हैं, कभी-कभी ग्रुप फोटो में से अपना फोटो काट कर यानी क्राप कर व्हाट्स अप की डीपी बना देते हैं। ग्रुपी का मकसद फेल हो जाता है। हम तय नहीं कर पाते हैं कि अकेले की तस्वीर पसंद है या ग्रुप की या ग्रुप में भी सिर्फ अपनी ही। शायद इसी कंफ्यूजन को दूर करने के लिए इंसान ने पहली बार सेल्फी खींची हो।
जिन लोगों को सेल्फी के इस दौर में ग्रुप सेल्फी पर नाज़ है उन्हें बस इतना बताना चाहता हूं कि आपके अपने भारत में ग्रुप फोटो का एक चलन ऐसा है जितनी बड़ी सेल्फी शायद आज तक नहीं खींची गई होगी। हमारे माननीय सांसद भले सदन के भीतर एक दूसरे को बर्दाश्त न कर पाते हों लेकिन उनको ग्रुप फोटो में देखकर कोई नहीं बता सकता कि पूरे कार्यकाल में इनके बीच मामूली बहस भी हुई होगी। बल्कि आप किसी सांसद से पूछिये ये ग्रुप फोटो उनकी ज़िंदगी का यादगार पल होता है।
गोपाल कृष्ण दत्त और उनका परिवार जिस कैमरे से हमारे सांसदों का ग्रुप फोटो खींचता है, वो कैमरा ही 100 साल से ज्यादा का है। कोडक सर्किट कैमरा है ये। 1910 में ये कैमरा इनके परिवार में आया था। गोपाल कृष्ण दत्त के दादा जी, पिताजी और खुद संसद के आधिकारिक फोटोग्राफर रहे हैं। एक शाट में एक निगेटिव से इतना विशालकाय ग्रुप फोटो लेने की तरकीब इन्होंने निकाली। इनका कैमरा एक फ्रेम में 2000 लोगों को ठेल सकता है। इनके रहते अगर हम ग्रुपी की बात करें तो नाइंसाफी होगी। वैसे भी आजकल मेक इन इंडिया का दौर चल रहा है। मेक इन इंडिया में वो लोग भी शामिल हैं जो इसके लांच डेट से पहले इंडिया का नाम रोशन कर रहे हैं। 543 सांसद एक फ्रेम में। कम से कम आप भारत के इस भारतीय ग्रुप फोटो कला के सम्मान में ताली तो बजाइये। आपका कोई भरोसा नहीं। क्या पता इस तस्वीर को देख आप इसके साथ सेल्फी न खींचाने लगे।
सेल्फी क्या है। इसकी उत्पत्ति कहां हुई अब इसका जवाब दूंगा तो मुल्कों के बीच झगड़ा शुरू हो जाएगा। वैसे भी हमारे प्रधानमंत्री दूसरे मुल्क में है। इसलिए अपने रिस्क पर मैं यह सब नहीं करना चाहता। वैसे हमारी राजनीति में सेल्फी का चलन प्रधानमंत्री के कारण ही बढ़ा। शुरूआत ठीक नहीं क्योंकि मतदान के बाद अपनी सेल्फी ली तो ध्यान ही नहीं रहा कि यह सेल्फी नहीं ग्रुपी है। मकसद तो सिम्पल था कि मतदान की नीली स्याही वाली उंगली दिखाना लेकिन भूल गए कि कुर्ते पर कमल का निशान सेल्फी को ग्रुपी बना रहा है। खूब विवाद हुआ, केस मुकदमा हुआ लेकिन सेल्फी को लेकर कभी रूके नहीं। विदेश यात्राओं में जाते ही लोग उनकी सेल्फी के लिए दौड़े-दौड़े चले आए। कई बार खुद प्रधानमंत्री मोदी ने उनकी मदद कर दी। फैन के हाथ से फोन लिया और सेल्फी खींच दी। उनकी सेल्फी की देखादेखी दुनिया के कई मुल्क प्रधानों ने की। लेकिन अब प्रधानमंत्री सेल्फी को लेकर बहुत उत्साहित से नज़र नहीं आते। वजह तो पता नहीं लेकिन काशी के गंगा तीरे जब जापान के प्रधानमंत्री ने सेल्फी के लिए फोन निकाला तो अपने प्रधानमंत्री ने हैरत भरी उदास निगाहों से देखा। भाव कुछ ऐसा लगा कि जापानी काउंटरपार्ट साहब करने क्या जा रहे हैं। कहीं घर तो फोन नहीं करने वाले। प्रधानमंत्री ने सेल्फी को ऐसे देखा जैसे देखकर कहा हो कि हां ठीक है। मैं इसे पसंद नहीं करता।
लेकिन पीएम भले सेल्फी को लेकर उत्साहित न हों उन्हें लेकर हमारे पत्रकार बिरादरी के लोग सेल्फी नियंत्रण नहीं कर पाते हैं। आपने वेद पुराणों में आत्म नियंत्रण के बारे में सुना होगा लेकिन आपने सेल्फी नियंत्रण नहीं सुना होगा। सेल्फी नियंत्रण वो नियंत्रण है कि आप किसी प्रिय को देखें लेकिन उसके साथ सेल्फी खींचाने की भावना को काबू में किये रहे। बहुत मुश्किल होता है। जब आम लोग नहीं कर पाते तो हमारे पत्रकार बंधु कैसे कर पाते। पत्रकारों ने दीवाली मिलन का न्यौता पाने के दिन ही तय कर लिया था कि इस बार भी सेल्फी ले कर रहेंगे। पिछले साल के दीवाली मिलन में प्रधानमंत्री को देखते ही पत्रकारों का सब्र टूट गया था। उनके साथ सेल्फी खिंचाने के लिए होड़ सी मच गई। सबने सेल्फी लेकर जल्दी-जल्दी ट्वीट किया कि ताकि दुनिया को पता चल जाए कि ख़बर के बदले सेल्फी भी मिल जाए तो कोई गम नहीं। सेल्फी न्यूज़ बन गई। कुछ नियमित आलोचकों ने पत्रकारिता के मानदंडों को लेकर हाय तौबा मचाई। दूसरे दीवाली मिलन पर भी पत्रकारों ने आलोचकों की एक न सुनी। सेल्फी के लिए अपनी बेताबी को कम नहीं किया। पत्रकारिका का संकट इंतज़ार कर सकता है, मगर सेल्फी इंतज़ार नहीं कर सकती। आलोचकों ने लेख लिखें कि पत्रकार अगर पावर और प्रधानमंत्री से प्रभावित होंगे तो वे आम लोगों के लिए पावरफुल लोगों से सवाल नहीं कर पायेंगे। पावर के नज़दीक दिखना पत्रकारिता का लक्षण नहीं है। पत्रकार जानते हैं लक्षणों का लिहाज़ करने के लिए पत्रकारिता में वे नहीं है। पीएम के साथ फोटो बुरा है या सेल्फी बुरी है इस पर निबंध लिखने के लिए कहा जाना चाहिए। क्या पीएम के साथ फोटो भी बुरा है। सवाल के बदले सेल्फी मिल जाए तो क्या ये कम है। कम से कम संपादक को तो बता सकते हैं कि न ख़बर नहीं मिली तो क्या हुआ, पीएम से मुलाकात तो हुई। लेकिन बीट रिपोर्टर को पता चला कि उनका संपादक भी सेल्फी की दौड़ में शामिल है। अच्छा हुआ कि बात आई गई रह गई। एक दो लेख लिखने के बाद आलोचक दूसरे मसलों पर आलोचना लिखने लगे।
अमरीका के राष्ट्रपति भी जहां जाते हैं सेल्फी ले आते हैं। पहाड़ हो, ग्लेशियर हो, इंसान हो, मेमोरियल हो, हर जगह वे सेल्फी ले आते हैं। अब लोग इमारातों और शहरों को देखने नहीं जाते। खुद को देखने जाते हैं। आगरा में लोग ताजमहल देखने जाया करते थे। ताजमहल की खूबसूरती भी इस सेल्फी कल्चर के आगे कम हो गई है। पहले लोग ताज के सामने जाते ही अवाक हो जाते थे। अब ताज को देखते ही पीठ फेर लेते हैं। सेल्फी खिंचाने लगते हैं। हमारे सहयोगी नसीम ने जाकर देखा कि सैलानियों को देखते ही फोटो के लिए दौड़ पड़ने वाले फोटोग्राफरों की बिरादरी मुश्किल में है। जब तक वे किसी के करीब पहुंचते हैं पर्यटक सेल्फी ले चुका होता है। कहां तो ताज को निहारते, ताज के सामने खुद को ही निहारने लगे हैं। यह एक नई संस्कृति है। सेल्फी आपके कहीं जाने, किसी के साथ होने का प्रमाण है। आपके अपने होने का प्रमाण है। रही बात अपने फोटोग्राफरों की तो बैठे बिठाये उनका धंधा भी मंदा होने लगा है।
अमरीका मे कोई ओहियो स्टेट युनिवर्सिटी है। वहां एक अध्ययन हुआ कि सेल्फी से आपके व्यक्तित्व का पता चलता है। इन रिसर्चरों ने यह देखा कि कौन व्यक्ति आनलाइन अपनी सेल्फी ज्यादा पोस्ट करता है। जिसने सबसे ज़्यादा सेल्फी पोस्ट की उसके बारे में पाया गया कि वो आत्ममुग्ध और साइकोपाथ है। मनोरोगी है। 18 से 40 साल के 800 लोगों पर वे रिसर्च करते हुए इन्होंने बीमारों की कैटगरी बनाई। अगर आप अपनी सेल्फी का संपादन करते हैं तो आप सिर्फ आत्ममुग्ध है। आत्ममुग्धता एक बीमारी है। अपनी बात करने वाले को समाज जब बर्दाश्त नहीं करता तो अपनी ही तस्वीर को पोस्ट करते रहने वाला इस सेल्फी समाज में कैसे बर्दाश्त किया जा रहा है।
जैसे आप गूगल इमेज के एक कार्टून को देखिये। जब सेल्फी की बारी है तब तो सारे खुश हैं लेकिन सेल्फी से पहले या बाद में मेज़ पर बैठा हर कोई अपने अपने फोन में व्यस्त है। कोई किसी से बात नहीं कर रहा है। इस कार्टून में तो कब्र में दफन कर दिया गया मुर्दा भी हाथ निकालकर सेल्फी ले रहा है। गूगल में आप फ्यूनरल सेल्फी टाइप करेंगे तो ऐसे कई चित्र मिलेंगे। इस फोटो में तो हमारा ही एक भाई कब्र पर झुका हुआ सेल्फी ले रहा है। एक हाथ में माइक है और एक हाथ में सेल्फी। क्या पता मुर्दा भी एक पल के लिए कब्र से बाहर आना चाहता हो। हमेशा के लिए सोने से पहले एक सेल्फी तो हो जाए।
23 साल का एक नौजवान प्लास्टिस सर्जरी करवा रहा है ताकि उसकी नाक नुकीली हो जाए और होंठ सुधर जाएं। तीन घंटे के इस आपरेशन के लिए इस युवक ने 80,000 रुपये खर्च कर दिए। अब यह नौजवान खुश है कि किसी भी एंगल से अपनी सेल्फी ले सकेगा। इस कारण पहले से बेहतर महसूस करता है। डाक्टर अनूप धीर ने बताया कि दो साल में सेल्फी के लिए आने वाले नौजवानों की तादाद बढ़ गई है। थोबड़े का नवीनीकरण किया जा रहा है। तरह तरह के एप्लिकेशन आते हैं जिनके सहारे आप अपनी आंखों में चमक पा सकते हैं, आंखों के नीचे के दाग हटा सकते हैं, जबड़े की चौड़ाई थोड़ी कम कर सकते हैं। यानी जो हैं वो नहीं दिखने के हर उपाय मौजूद हैं। सेल्फी आपका वो सेल्फ है जो आप दूसरों को पेश करना चाहते हैं।
सेल्फी हमारे दौर का नया पापुलर कल्चर है। कई लोगों ने सेल्फी के प्रसंगों को लेकर तरह-तरह के मनोरंजक वीडियो बनाए हैं। पाकिस्तान में ऐसे वीडियो काफी बने हैं। भारत में भी बने हैं। सेल्फी हमारी कल्पनाशीलता को प्रेरित करती है। हमें कवि बनाती है, हमें जोकर बनाती है। सेल्फी को लेकर वीडियो लतीफों को जरूर देखिये। और हंसते-हंसते सेल्फी न खींचा लें।
सेल्फी के लिए सेल्फी छड़ी की खोज हो गई। अभी तक कानून के हाथ लंबे होते थे लेकिन सेल्फी के कारण पता चला कि फोन के हाथ भी लंबे हो सकते हैं। तरह-तरह की छड़ियां बाज़ार में आ गईं। लोग उस्तरे की तरह जेब से निकाल कर सेल्फी स्टिक को फैलाने लगे और सेल्फी लेने लगे। यहां तक कि टाइम मैगज़िन ने सेल्फी स्टिक को 2014 के सबसे बढ़िया आविष्कारों में से एक बताया। कैमरा के साथ ट्रायपॉड आया, स्मार्ट फोन के साथ सेल्फी स्टिक। सेल्फी स्टिक ने फ्रेम के संसार को बड़ा कर दिया। आसमान में सेल्फी स्टिक होने लगी और नीचे इंसान ऐसे ताकने लगा हो जैसे स्टिक के ऊपर देवता बैठे हों। बिजनेस इनसाइडर पत्रिका ने लिखा कि छुट्टियों के सामान में सबसे ज़रूरी चीज़ है सेल्फी स्टिक। एक लेख में यह भी बताया गया कि सेल्फ़ी ने हमारे सामाजिक मेलजोल का तरीका, हमारी बॉडी लैंग्वेज, प्राइवेसी और हंसी खुशी के हमारे तरीकों को ही बदल दिया है। अप्रैल 2015 में समाचार एजेंसी पीटीआई ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी कि सेल्फी स्टिक का प्रथमागमन यानी पहली बार सेल्फी स्टिक का आगमन 1980 के दशक में हुआ था। यूरोप की यात्रा पर गए एक जापानी फोटोग्राफर ने इस तरकीब को जन्म दिया था। वो अपनी पत्नी के साथ फोटो चाहता था। दोनों किसी फ्रेम में एक साथ आ ही नहीं पाते थे। एक बार उसने अपना कैमरा किसी बच्चे को दिया और वो लेकर भाग गया। इस दर्द ने एक्सटेंडर स्टिक का जन्म दिया जिसका 1983 में पेटेंट कराया गया। सेल्फी स्टिक तो नया नाम है।
सेल्फी स्टिक और कैमरे को लेकर तरह-तरह के आइटम बाज़ार में आ रहे हैं। सोच तो पूरी धरती को एक ही फ्रेम में ले लेने की लगती है, फिलहाल आस पास के मैदान, नदियों और रैली में आए सभी लोगों के साथ सेल्फी का जुगाड़ खोजा जा रहा है। कई जगहों पर सेल्फी स्टिक को बैन किया जा रहा है। अमरीका पेरिस और हांगकांग के डिज़्नीलैंड में सेल्फी दंड पर रोक लगाई गई है। कई अन्य दर्शनीय इमारतों के परिसर में भी सेल्फी दंड यानी स्टिक को ले जाने पर रोक लगाई गई है। पित्ज़ा हट ने जनहित के लिए एक वीडिया बनाया है। इसमें सेल्फी स्टिक की तमाम बुराइयों के प्रति आपको सचेत किया जाता है। 20 मई 2015 को अपलोड किये गए एक वीडियो का नाम है द डेंजर आफ सेल्फी स्टिक। यू ट्यूब पर 43 लाख से ज़्यादा बार इसे देखा जा चुका है। मकसद तो जनहित के साथ-साथ उत्पाद का विज्ञापन करना है मगर आप यह देखिये कि छड़ी लिये घूमते रहने से क्या-क्या हो सकता है।
जब बिजली कड़के तो आप कम से कम सेल्फी स्टिक लेकर न निकलें। पता चला कि विद्युत धारा के साथ धारा प्रवाह हो गए। छड़ी रे छड़ी हिन्दी सिनेमा का पुराना गाना है पर वो छड़ी सेल्फी स्टीक नहीं है। सेल्फी पर हमारे यहां गाना जरूर बन चुका है। यह गाना भी सेल्फी के प्रति हमारे आकर्षण में खोट की तरफ इशारा करता है। चल बेटा सेल्फी ले ले रे में कवि यह कहना चाहते हैं कि जल्दी करो। छुटकारा दो। सेल्फी लेकर निकलो यहां से।
आप अगर घबराएं न तो यह भी बता दूं कि कुछ लोगों ने सेल्फी ओलंपिक की शुरूआत कर दी। इस ओलंपिक से वे लोग नहीं जुड़े हैं जिनसे इस्तीफा मांगा जाता है या जो मांगने के चक्कर में निकाल दिये जाते हैं। सेल्फी ने हर स्मार्ट फोन धारक की रचनात्मकता को न सिर्फ बेहतर किया है बल्कि बेकार भी किया है। सेल्फी ओलंपिक के जनक का पता तो नहीं चल सका और न हीं इसके संयोजक का फिर भी फेसबुक और ट्वीटर पर इस ओलंपिक में सेल्फी के खिलाड़ियों की तस्वीर देखकर दिल दहल गया। अगर आपने ऐसा करने का दुस्साहस किया तो यकीन मानिये आप अपनी जान को खतरे में ही डालेंगे।
सेल्फी इतनी भी बुरी नहीं है। अमिताभ बच्चन ने अपने ब्लाग में लिखा है कि सेल्फी विधा में अंतरंगता दिखती है। कहते हैं कि फोटो खींचने की यह चमत्कारिक विधि है जिनके साथ सेल्फी ली जाती है उनके संग एक खास तरह की अंतरंगता को दिखाती है। जो सेल्फी लेता है वो काफी संतुष्ट हो जाता है। दिक्कत यह है जब हम सेल्फी को लेकर सीमा पार करने लग जाते हैं।
अप्रैल महीने में नवी मुंबई में तीन छात्रों ने सेल्फी के चक्कर में जान गंवा दी। तीनों अपने मित्र के जन्मदिन पर झील के किनारे गए थे। लेकिन बेहतर तस्वीर के चक्कर में गहरे पानी में चले गए और धोखा हो गया। इसी साल जनवरी में आगरा के पास तीन छात्र रेल के नीचे आ गए। ताजमहल देखने निकले थे लेकिन अपनी कार रोकी और रेलवे ट्रैक पर दुस्साहसी सेल्फी लेने का हौसला कर बैठे। छात्रों की कोशिश थी कि ट्रेन के बैकग्राउंड में सेल्फी लें लेकिन ट्रेन बहुत पास आ गई और दुर्घटना हो गई। मई महीने में रूस में एक महिला ने सेल्फी लेते वक्त खुद को गोली मार ली। वो कनपटी पर बंदूक तान कर सेल्फी लेना चाहती थी। ट्रिगर दब गया और जीवन ही समाप्त हो गया। बाली में एक सिंगापुर के सैलानी की मौत हो गई। पहाड़ की चोटी पर जा वो सेल्फी लेने का प्रयास कर रहा था। संतुलन बिगड़ा और सेल्फीग्रस्त हो गया। दुर्घटनाग्रस्त की जगह जल्दी ही सेल्फीग्रस्त का इस्तमाल होने लगेगा। आप प्लीज़ ऐसा न करें। समझिये कि सेल्फी एक रोग है। सेल्फी मौजमस्ती के लिए लीजिए लेकिन इसके लिए जान जोखिम में मत डालिए
सेल्फी को लेकर रिसर्च तो हो ही रहा है। काउंसलिंग करने वालों ने भी सेल्फी को विषय बना लिया है। सेल्फी ने कैमरों का संसार भी बदल दिया है। स्मार्ट फोन से लेकर पारंपरिक कैमरों को भी सेल्फीगुण से लैसे किया जा रहा है। टेक्नालजी की पत्रिकाओं में अब कैमरों या फोन की खास तौर पर विवेचना की जाती है कि कौन सा फोन सेल्फी के लिहाज़ से बेहतर है। अगर आप संतुलित और संयमित तरीके से सेल्फी लें तो कोई बुराई नहीं है। मज़ा है लेकिन ज़रा ध्यान से।
टेक्नालाजी की पत्रिकाओं में अलग से लिखा जाता है कि आपके लिए टाप टेन सेल्फी फोन क्या क्या हैं। टाप सेवन सेल्फी फोन क्या क्या हैं। जैसे फोन का गुण सेल्फी के गुण से ही तय हो रहा हो। फोन की समीक्षाओं में लिखा होता है कि यह फोन सेल्फी एडिक्ट के लिए बना है। परफेक्ट सेल्फी के लिए अच्छे ऐप क्या हैं इसे लेकर भी समीक्षाएं प्रकाशित हो रही हैं। तरह तरह के ऐप आ रहे हैं।
जब सेल्फी से फोन वाले कमा सकते हैं तो जिसकी सेल्फी खींची जाएगी वो क्यों नहीं कमा सकता। पत्रिका की साइट से एक खबर मिली कि मध्य प्रदेश के खाद्य मंत्री विजय शाह ने ऐसा कुछ तय किया है कि हाथ मिलाने और सेल्फी खिंचवाने के लिए दस रुपये देने होंगे। शाह समाज सेवा के लिए पैसे जुटाने चाहते हैं। उन्हें यह आइडिया लंदन से मिला है। कोलकाता ने गाय के प्रति जागरुकता फैलाने के लिए सेल्फी विद काऊ प्रतियोगिता शुरू कर दी। कभी भी कहीं भी कुछ भी हो सकता है। सेल्फी के लिए आदमी कुछ भी कर सकता है। प्लीज आप ऐसा न करें।
बजरंगी भाई जान ही नहीं सेल्फी कई फिल्मों और वीडियो अल्बम में आ गई है। अंग्रेजी से लेकर दक्षिण भारतीय फिल्मों में भी सेल्फी को लेकर गाने लिखे जा रहे हैं। पर तमाम गानो और लतीफों में सेल्फी का पात्र लड़कियां ही हैं। जैसे सेल्फी उनके कारण है। सेल्फी की दुनिया में क्या लड़के बिगड़े हुए नहीं हैं। दिक्कत यही है कि सारे गानों में सेल्फी को लड़कियों की नज़र से देखा गया है। यू ट्यूब पर हमें पंजाबी अल्बम का गाना मिला। कमल और प्रीत का अल्बम है यह। गाने में सेल्फी को सेल्फियां कहा गया है। मुखड़ा है खींच खींच सेल्फियां फिरे भेजती। इस गाने में कवि नायिका से कहता है कि तू जो फोटो लगा रही है उससे अगर फोटो आई डी बन गई तो रात को सोएगी कैसे। कवि नायिका को समझाता भी है कि इंटरनेट वाला प्यार तो दिन ही चलता है, बाद में तू रोएगी।
हम सबका सेल्फीकरण हो रहा है। हम जहां हैं वहां होने से संतुष्ठ नहीं है। हर समय कुछ नया लम्हा चाहिए। कुछ नहीं होता तो खुद को लम्हे में बदल लेते हैं। कैमरा निकाल कर आबजेक्ट बन जाते हैं। देखना का लुत्फ खुद से ज़्यादा सामने या आस पास देखने में है। आप सबके फोन में सैंकड़ों सेल्फियां होंगी । कभी सोचियेगा कि किस लिए हैं। कभी आप दोबारा उन्हें देखते भी हैं या यूं ही फोन में पड़ा रह जाता है। ये आदत कहां तक खुशी के लिए है और कहां से आपके लिए सनक बनने लगता है इसका ध्यान तो रखना ही होगा। कैमरे के सामने कितनी साल हम एक ही तरह से खड़े रहते। सेल्फी ने हमें कैमरे से बेतकल्लुफ बना दिया है। हम अब कैमरे के लिए नहीं है। कैमरा हमारे लिए है। बस ज़रा नाक की मरम्मत कराना या जबड़े का आपरेशन कराना वो भी सेल्फी के लिए, लगता है कि कोई हमारे समाज में बीमार है। शायद हम बीमारी से खेलने के दौर में हैं। दिल को देखो, चेहरा न देखो, चेहरे ने लाखों को लूटा…ये गाना तो आपने सुना ही होगा। बस इतनी सी बात कहनी थी कि ये स्मार्ट फोन हमें स्मार्ट बना रहा है या हम इसके लिए स्मार्ट बन रहे हैं। सेल्फी आपका सेल्फ नहीं है। वो आपके सेल्फ का कोई और सेल्फ है। जिसमें आप तो नहीं होते, आप जैसा कोई होता है। वैसे जिन लोगों ने प्राइम टाइम नहीं देखा हो वो मेरे साथ सेल्फी खींचा सकते हैं।