सेतु
तुम आशाबन्ध सेतु हो
मेरे प्राण व जीवन के मध्य ।
अथाह गहरी खाईं है
इस सेतु के नीचे ।
जहाँ हलाहल विषजन्तु है,
कालकूट आतुर है ग्रास को
किन्तु प्रेम की जिस ऊँचाई पर
यह सेतु स्थित है
वहाँ सद्भाव ही पहुंच सकते ।
मेरे सारे स्वप्न, जिजीविषा
इसी सेतु पर टिके है ।
मैं इसी सेतु पर खड़े हो
अपने हिस्से का आकाश
बामुश्किल ढूंढ पायी हूँ ।
अब मैं नहीं खोना चाहती
अपना आकाश, अपने स्वप्न ।
इसी सेतु पर चलकर
मैं अपनी सुबह-शाम
सब संवारना चाहती हूँ ।
अब तुम्हें कोई अधिकार नहीं
कमजोर पड़ जाने का
या दरारों को जगह देने का,
तुम्हारे मजबूत कांधों पर ही
मेरा सारा दारोमदार टिका है ।