सृष्टि
ऐ सृष्टि,
कहाँ है तेरी दृष्टि,
कभी अतिवृष्टि,
तो कहीं अनावृष्टि।
ऐ सृष्टि,
ये जो आषाड है,
मेघों की चिंघाड है,
उफनती बाढ है,
तो कहीं टूटता पहाड है।
ऐ सृष्टि,
यह माना की हमने छेडा तुझे,
निर्ममता से है तोडा तुझे,
अपने हित के लिये झिंझोडा तुझे,
पर थोडा ही सही,
है अफशोस मुझे।
ऐ सृष्टि,
हम तेरी संन्तान हैं,
हैं कुछ भले ,तो कुछ शैतान हैं,
अपने स्वार्थों,से हैं वशीभूत,
अपनी रचनाओं से हैं अभिभूत,
अनिष्ट की आशंकाओं से रह के अनजान,
हम नादान हैं, हम नादान हैं।
ऐ सृष्टि,
कैसे कैसे झंजावतों से टूटी है तू, ,
अपने अपने ढंग से सबने लूटी है तू ,
अब कराह कर अपनी वेदना से,
जब भी उठी है तू,
हमने सोचा है की हमसे रुठी है तू ।
ऐ सृष्टि,
हमसे तो होता रहा तेरा तृष्कार,
तू उठाये रही हम सबका भार
है,धन्य तू,तुझे कोटी कोटी नमस्कार,
ऐ सृष्टि, तेरा सदा बना रहेगा आभार।