सृजन (अल्फाज़)
बिखर गयी हसरतें संग संग जिनें की हज़ार…!
तुम जो आए हो याद हो बार बार ए हज़ार…!!
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आज परिचित है कल आज़नवी रहेंगे सब यहां….!
लोग मिलते है जुलते है बिछड़ते रहेंगे सब यहां…!!
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अपना भी मिलता है आज़नबी सा कोई..!
ऐसे देखते हैं कि जैसे पराया सा हूं कोई…!!
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मिरि तरफ नहीं टूटा हैं अब तक कोई भी रिस्ता
रिश्तेदारों ने जो उम्मीदे ज्यादा लगा रखी थी…!!
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तिरि यादों में हम तो हैं मुस्तकिल
तू आ मिल या ना मिल…..!!
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इतना भी गुरुर ना कर ए गुरुर करने वाले
इक दिन मर कर भी तो खाक ए ज़मी होना हैं तुझे..!!
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मिरे जैसा हम साया यही यहां और भी हैं
मिरे संग का हम साया यहां और भी हैं
रहता वो संग मिरे शोर ए सन्नाटा और भी हैं
ढूढ़ता हैं संग अपना साया ए सन्नाटा और भी हैं…!!!
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लोग भी बदल जाया करते हैं ज़माने के लिए
हम जो बदले तो क्या गुनाह हो गया..!
ज़िन्दगी मिली इंसा को के सुकू से गुज़ारे
हसरतों के वास्ते इंसा भी वेसुकू हो गया…!!
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मिरि चाहत का भी अब क्या तुम से गिला करें
तुम्हे गवारा ही नहीं था जो मुझ से मिलना…!!
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ख्वाब ही देखे हैं हर शाम तुम से मिलने के
हक़ीक़त में तुम्हे गवारा नहीं था मुझ से मिलना..!!
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कुछ किताबों में पढ़ी थी मैंने रूह की खाशीयत
इन मोहब्बतों में ना मुझको मिली वो रूहानियत..!!
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