सूर्य षष्ठी
सूर्य षष्ठी
✒️
गगन से दूर जातीं हे!, किरण सूरज ज़रा ठहरो
गमन करतीं सुनो रुककर, दिवस की हारती पहरों;
अकिंचन चाँद तारे हैं, सँवरती शान तुम्हारी
अरघ लेकर खड़ीं देवी, धरा की शान हैं सारी।
घुमड़कर साँझ की आँखों, चली आना कभी फिर तुम
विनय यह मानिये मेरी, निद्रा देवी तनिक हों गुम;
किरण के दान देता जो, दिनों के भाल पर चमके
परम रवि पूजने आये, बहुत विधि नार बन-ठन के।
खड़ीं माता-बहन जल में, करों में अर्घ को पकड़े
प्रभो! अब देख लो अपने, चमकते धूप को जकड़े;
चले हो अस्त होने को, क्षितिज के पार हे दाता
स्वरों को बाँधकर गातीं, विपुल गीतें बहन माता।
निशा के स्यंदनों में जो, शयन करते तरुण ज्योतित
प्रभा में सुर्ख़ आँखें ले, गगन में खिल उठे केतित;
अनश्वर ईश के दर्शन, उमड़ कर लोग आये हैं
उरों में पुष्प से कोमल, मधुर अहसास लाये हैं।
तुहिन किलकारियाँ करता, रमा है घाट पर निशि से
चमक हीरों जड़ी उसकी, सरल मुस्कान पर बरसे;
वहीं है शाम से बैठी, भगति की भाव माँ ऐसे
अँधेरे की नदी में वह, इना की नाव हो जैसे।
समर्पण देखकर प्रभु तुम, सदा वरदान यह देना
कि जो व्रत-दान करते हों, भगत के मान रख लेना;
उदय होते रहो उस घर, न जिसमें पाप छाया हो
रहे निश्छल सदा प्राणी, जहाँ पर दैव माया हो।
…“निश्छल”