सूर्य ग्रहण
सृजनहार की उस रचना में, कालचक्र की उस घटना में,
अतुलनीय सौंदर्य देखकर, निर्झर सी अबाध वाणी,
कुछ यूं रीझी, अवरुद्ध हो गई,
जीवन की शक्ति का उद्गम प्रतिपल क्षीण, क्षीणतर होता था,
पल -पल क्षय होती थी काया, अंधकार की बढ़ती छाया,
सबके मन थे डरे -डरे से, अनजाने भय से सहमे से,
जड़ चेतन निस्तब्ध खड़े थे, निष्कंपित,निस्पंदित से थे,
बर्फ़ीली ठंडी चादर की गहराती सुरमयी परतों में ,जाने कितने भेद छुपे थे,
एक अलौकिक तेजपुंज ने तब ही प्राणसुधा छलका कर,
जीवन का संचार किया,
लगी पिघलने मौन वेदना, स्पंदन फ़िर क्रमशः लौटा,
अंधकार की बढ़ती छाया, उस दैवी उजास के आगे,
यूं सिमटी, अदृश्य हो गयी।
आदि शक्ति के प्रखर तेज ने, एक बार फ़िर सिद्ध कर दिया,
सच के प्रखर सूर्य के आगे, भ्रम का अंधकार भंगुर है,
छाया कितनी ही बढ़ जाए, कितनी ही गहरी हो जाए,
उसे पराजित कर सकती है,
ज्योतिपुंज की एक किरण भी।