अनचाहा प्रातः हुआ….
प्रातः होने की लालिमा छा गई
धीरे – धीरे प्रातः होने को आया।
चिड़ियों की चहचहाहट
मोटरों का चलना
मन में उथल – पुथल मचाया।
प्रातः के सौंदर्य को
देखने के लिए मन बेचैन।
वह शुध्द ऊषा नहीं रही
थोड़ा बहुत पेड़ों का डोलना
हवाओं के झरोखा
फूलों की महक
कबूतरों का फड़फड़ाना
फिर भी शांत वातावरण
कोई रस, स्फूर्ति, चंचलता नहीं।
गौण हो गई
प्राकृतिक सौंदर्य
शोरगुलों वाली मशीने और कारख़ाने रह गए।
कँहा गयी
कँहा गयी
वह कँहा चली गयी
प्रातः हुआ
सहसा तेज़ रौशनी
बदन को तपाता हुआ
अनचाहा प्रातः हुआ
प्रायः हुआ।
सोनी सिंह
बोकारो(झारखंड)