सूरज
!! श्रीं !!
गीतिका
सूरज
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(आधार छंद- सार, 28 मात्रा, 16-12 पर यति, अंत वाचिक गागा ।)
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माघ-पौष के सर्द दिनों में, नजर न आता सूरज ।
घिरा कोहरा कहीं ठिठुर कर, जा सो जाता सूरज ।।1
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बूढ़े-बड़े काँपते थर-थर, ओढ़ रजाई बैठे ।
लगे निर्दयी किंचित उन पर, तरस न खाता सूरज ।।2
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हाथ छिपाये बगलों में सब, सी-सी करते डोलें ।
ऐसा लगता जानबूझ कर, हमें चिढ़ाता सूरज ।।3
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बचपन में मित्रों के सँग में, टिल्लो खेला करते ।
शायद खेले स्वयम् हमें भी, खेल खिलाता सूरज ।।4
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खाओ-पीओ खूब चकाचक, तन में गरमी लाओ ।
अम्बर से संदेश सुनाता , जब मुस्काता सूरज ।।5
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तुहिन कणों से भीगे पत्ते, डालों पर ठिठुराये ।
बच्चों जैसा इस ठंढी में, मन को भाता सूरज ।।6
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सूरज दादा! शरद-शिशिर में ,बूढ़े क्यों हो जाते ।
‘ज्योति’ पूछता बार-बार पर, नहीं बताता सूरज ।।7
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महेश जैन ‘ज्योति’,
मथुरा !
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25/12/2021