सूरज नमी निचोड़े / (नवगीत)
ताक रहे हैं
आसमान को
सूखे खेत निगोड़े ।
बिगड़ गया है
ताव बखर का,
टूटी मुठिया हल की,
नहीं दीखती
एक बूंद भी
कुइला भीतर जल की,
दाग किरण
माटी के भीतर
सूरज नमी निचोड़े ।
भर-अषाढ़ में
सूखे बिरछा
सूख रही है काया,
घर के भीतर
की उकताहट
बाहर खोजे छाया,
तपी दुपहरी,
उमस शाम है,
रात पसीना छोड़े ।
भाप उगलती
भोर-नशीली !
तपा घड़े का पानी,
बिन बारिश के
होगी कैसे ?
‘माँ की चूनर धानी’,
‘फेरे पड़ते-
वधू उँघासी’,
‘दूल्हा पाँव सिकोड़े’ ।
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— ईश्वर दयाल गोस्वामी
छिरारी (रहली),सागर
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