सूनी हवेली
सूनी पड़ी ये हवेलियाँ
बन्द पड़े ऊँचे ये द्वार
मैं हूँ विरहन नार अकेली
पिया गये करने व्यापार।
करूं मैं निख शिख तक
स्वर्ण गहनों का श्रृंगार
बिन साजन व्यर्थ सब
फूल भी लगे हैं अंगार।
पहले बाबुल की चौखट
होती थी मेरा आगार
घर की ये चाहर दीवारी
साजन अब मेरा संसार।
इसमें घुटती मेरी भावना
इसमें सिसकते हैं अरमान
निर्विकार हूँ शब्द मौन हैं
माटी की मैं मूरत बेजान।
मुझे तेरी कितनी है लगन
कब जाना तूने ओ पिया
तू मेरी सांसों का माली
तुझ बिन अब न जाए जिया।
रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान )
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
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