सूत जी, पुराणों के व्याख्यान कर्ता ।।
सूत जी:-
हिंदू समाज में सूत एक वर्ण शंकर जाति है। क्षत्रिय पिता और ब्राह्मण माता से उतपन्न संतान सुत जाति में आती है। इस जाति में पैदा हुए लोगों को शास्त्र अध्ययन का अधिकार नहीं होता। इस जाति के लोग या तो किसी क्षत्रिय योद्धा के सारथी बनते हैं या फिर इतिहास लेखन का कार्य करते हैं। महाभारत में योद्धा कर्ण इसी सूत जाति से सम्बंध रखते थे।
एक बार यज्ञ करते समय ब्राह्मणों ने भूल से देवराज इंद्र की हविष्य में देव गुरु बृहस्पति की हविष्य मिला दी थी, जिससे यज्ञ से एक मनुष्य उत्तपन्न हुआ इसी को सूत जी कहा गया। इनका मुख्य नाम रोमहर्षण था क्योंकि इनके ज्ञान से प्रत्येक मनुष्य का रोम-रोम खिल उठता था इसलिए इनका नाम रोमहर्षण था।
रोमहर्षण बहुत ही बुद्धिमान बालक थे उन्होंने बहुत जल्द ही व्यास जी की शरण पाकर उनके द्वारा लिखे समस्त पुराणों को आत्मसात कर लिया था, उसके बाद भी उनकी ज्ञान पिपासा शांत नहीं हुई, इसलिए उन्होंने ब्रह्माजी के शिष्यत्व ग्रहण किया और उनसे भी ज्ञान प्राप्त किया।
व्यास जी ने पुराणों की रचना की थी किंतु जब तक पुराणों का ज्ञान आम लोगों तक ना पहुँचे उसके बिना वो अर्थहीन ही रहते। व्यास जी ने देखा कि उनके शिष्य रोमहर्षण को समस्त पुराण कंठस्थ हैं और उनकी भाषा एवं स्वर भी कर्णप्रिय था, इसलिए उन्होंने रोमहर्षण से कहा कि तूम पुराणों का ज्ञान जन-जन तक पहुंचाओ और उनको श्रष्टि के रहस्यों से अवगत कराओ, जिसके लिए उन्होंने उनको नेमिषारण्य अपना अपना आश्रम बनाने के लिए कहा क्योंकि नेमिषारण्य में भगवान श्री हरि विष्णु ने एक पलक झपकने वाले समय अर्थात नैमिष के अंर्तगत ही हजारों-लाखों राक्षसों का बध कर दिया था, इसलिए वह स्थान सबसे सुरक्षित और पवित्र था।
जब ऋषि रोमहर्षण ने पुराणों के बखान के लिए नैमिषारण्य में अपनी गद्दी स्थापित की तब उनके गुरुकुल के बाल शखा ऋषि शौनक 88हजार ऋषियों के साथ उनके मुख से पुराणों का ज्ञान सुनने पहुँचे थे।
उन सभी ऋषियों ने ऋषि शौनक के नेतृत्व में सूत जाति से सम्बंध रखने वाले ऋषि रोमहर्षण का सम्मान कर उनको सूत जी के सम्मान से नवाजा। किंतु जब कुछ ऋषियों ने उनकी जाति को लेकर आपत्ति की तब व्यास जी ने उनसे कहा कि, “समाज को विकाश के पथ पर अग्रसर करने के लिए और बेबुनियाद लालच के बशीभूत होकर प्रतियोगिता को समाप्त करने के लिए जाति व्यवस्था की गयी है ना कि समाज को विभाजित करने के लिए, इसलिए ज्ञान, जाति से ज्यादा श्रेष्ठ है.”
जब सूत जी महाराज अर्थात रोमहर्षण ऋषि पुराणों का बखान कर रहे थे तभी नैमिषारण्य में वासुदेव श्री कृष्ण के भाई बलराम भी पधारे थे, इस समय कुरुक्षेत्र में महाभारत का युद्ध चल रहा था। जब बलराम उस सभा में गए तो उनके आदर में सभी ऋषि खड़े हुए किंतु ऋषि रोमहर्षण व्यास जी की गद्दी पर बैठे थे इसलिए वो खड़े नहीं हो सके। जिसे बलराम ने अपना अपमान समझा और घास के एक तिनके को मन्त्रबद्ध कर ऋषि रोमहर्षण पर छोड़ दिया जिससे उनकी गर्दन धड़ से अलग हो गयी।
यह देखकर सभी ऋषि बलराम के इस कार्य से बहुत नाराज हुए और तभी तक ऋषि रोमहर्षण केवल 11 पुराणों का बखान ही कर पाए थे, इसलिए अभी और भी पुराणों का बखान बाकी था।
ऋषि शौनक ने जब बलराम को ऋषि रोमहर्षण के खड़े ना होने की सच्चाई बतायी तो बलराम को बहुत दुख हुआ जिसके पश्चाताप में उन्होंने ऋषि रोमहर्षण के पुत्र रिहाई उग्रश्रवा को व्यास गद्दी पर बिठाया। ऋषि उग्रश्रवा अपने पिता रोमहर्षण से भी ज्यादा होनहार मेधावी थे, उन्होंने उनसे भी कम उम्र में व्यास जी के सानिध्य में रहकर सभी पुराणों को कंठस्थ कर लिया था।
इसके बाद भी बलराम ने उन साधुओं की मदद के लिए वहाँ पर रहने वाले इल्वल राक्षस के पुत्र बल्वल को भी मार दिया था।
इस प्रकार व्यास जी द्वारा रचित पुराणों के मुख्य व्याख्यान कर्ता सूत जी महाराज है। अपने ज्ञान के बल पर उन्होंने हिंदू धर्म की मुख्य कुरीति जाति व्यवस्था को भी संतुलित किया था।