सुस्ता लीजिये थोड़ा
सुस्ता लीजिये थोड़ा,
थक गए हैं अगर,
रुक लीजिये थोड़ा,
रुक गए हैं अगर।
रुकना है अभिशाप
ये जान लें मगर।
इस हद तक दौड़
मची हुई है आज,
लगती है ज़िंदगी
काँटों भरी डगर ।
वो शुकून जिसको कहते हैं,
किसको कहाँ मिला?
निराशा हराकर आशा का
दीपक कहाँ जला?
ख्वाहिशों के कितने भी
पूरे हुए मुक़ाम,
अगली को उठ खड़ा हुआ
मन में नया मलाल।
हाथों में सब मौजूद है
पर हाथों को ही मला।
वो शुकून जिसको कहते हैं,
किसको कहाँ मिला ?
निराशा हराकर आशा का
दीपक कहाँ जला ?
वो शुकून जिसे कहते हैं,
किसको कहाँ मिला ?
(c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव “नील पदम्”