सुसाइड नोट
सुनो ! मेरे प्राण संकट में हैं,
मैं धीरे धीरे मर रहा हूँ
जबकि मेरे पास सब कुछ है,
बिजली के खम्भे, तार, ट्रांसफार्मर,
बल्ब, पंखा, वाशिंग मशीन,
टी वी, फ्रिज, कूलर,
अगर कुछ नहीं है तो वह है
इनमे विद्युत् का प्रवाह
हाँ, मैं उपेक्षित, तिरस्कृत गांव हूँ
कृषि प्रधान देश रूपी शरीर को
चलाने वाला पांव हूँ.
मेरे सारे जवान बच्चे
नाई, धोबी, मोची, कुम्हार,
मनिहार, पंडित, बढ़ई, लोहार,
पलायन करते जा रहे हैं.
हमारी बुढ़ापे की उम्मीद को खा रहे हैं.
मेरी नांद, सरिया, भुसैल, खूंटे सुनसान हो गए हैं.
सारे सिवान और चारागाह वीरान हो गए हैं,
हाँ, मैं उपेक्षित, तिरस्कृत गांव हूँ
कृषि प्रधान देश रूपी शरीर को
चलाने वाला पांव हूँ.
मेरी उपस्थिति पंजिका में
दो सौ पचास नाम हैं.
जो दोपहर के भोजन का अंजाम है,
मेरे छोटे भगोने का खाना बच जाता है
गुरु जी का हिसाब किताब यही बताता है,
मूल विद्यार्थियों के लिए तरस रहा हूँ,
शिक्षा प्रणाली पर बरस रहा हूँ.
हाँ, मैं उपेक्षित, तिरस्कृत गांव का
प्रायमरी स्कूल हूँ, अथवा
सरकारी नीतियों में हुई भूल हूँ.
मेरे प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में
बकरियां घूमती हैं,
अनचाही लताएँ लेबररूम चूमती हैं,
डाक्टर, नर्स, कम्पाउंडर
किसी अफसर के दौरे पर आते हैं.
जनता हूँ संसाधनों के अभाव में,
खाली सेवा भाव में,
आलिशान गृहस्थी नहीं चलती,
चैन की बंशी नहीं बजती.
हाँ, मैं उपेक्षित, तिरस्कृत गांव का
हेल्थ सेन्टर हूँ
झाड़ फूंक ओझा वाला मन्तर हूँ.
सुनो,
यदि मुझे बचाना चाहते हो,
तो नहीं चाहिए मुझे,
मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर,
मै अच्छी तरह समझ गया हूँ कि
सर्वत्र व्याप्त है ईश्वर.
इसीलिए सिर्फ मुझे बिजली, पानी, सड़क दे दो,
मेरे बच्चे मेरे आँगन में ही रुक जायेंगे,
ये डाक्टर, मास्टर, नर्स भी रोज आयेंगे,
मैं फिर हरा-भरा हो जाऊँगा,
तुम्हारा गाँव हूँ, मरूंगा नहीं,
मुटाके कुन्दा हो जाऊँगा.
भर जाएगा मेरे ह्रदय का आयतन,
जब मिलेगा हर युवा को रोजगार,
और रुकेगा पलायन.
प्रदीप तिवारी ‘धवल’