“सुबह-सबेरे”
“सुबह-सबेरे” (हाइकु)
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निकल गया
प्रभाकर पूरब
छटा निराली।
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खिल गये हैं
फूल भी धरा पर
खुशबूदार।
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देखो तुम भी
ये दृश्य विहंगम
प्रातःकालीन।
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कष्ट मत दो
अपने जीवन को
सुबह उठो।
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शुद्ध हवा लो
अपने जीवन को
अब बचा लो।
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ये पड़े-पड़े
क्यों खत्म हो रहे
दीर्घायु भव:।
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स्वरचित सह मौलिक
….. ✍️पंकज “कर्ण”
…………कटिहार।।