सुन रहा न कोई
कांटे बिछा रहे सब, पर चुन रहा न कोई
संसार में किसी की अब सुन रहा न कोई
फूलों की करते आशा , कांटों के बीज बोके
खुद आगे बढ़ना चाहें, औरों के राह रोके
मन में है छल सभी के, शगुन रहा न कोई
संसार में किसी की अब सुन रहा न कोई
औरों को करे खुद, न परेशान होना चाहे
हर आदमी यहां का, धनवान होना चाहे
अवगुण हुए हैं इतने कि गुण रहा न कोई
संसार में किसी की अब सुन रहा न कोई
सबके दिलों में बसती है स्वार्थ की कहानी
मानव के इस चलन से मानवता पानी-पानी
नाते उघड़ रहे सब, पर बुन रहा न कोई
संसार में किसी की अब सुन रहा न कोई
न पुण्य दिख रहा है , न धर्म दे दिखाई
हर ओर दोष दिखता , कुकर्म दे दिखाई
सब हो गए दुशासन, अर्जुन रहा न कोई
संसार में किसी की अब सुन रहा न कोई
आगे अपने कुछ भी, न देखता है कोई
इंसान तो है जागा , पर आत्मा है सोई
सुन वक्त का क्रंदन, करूण रहा न कोई
संसार में किसी की अब सुन रहा न कोई
विक्रम कुमार
मनोरा, वैशाली