सुन मानसून ! सुन
सुन ! सुन !! सुन!!
रुक! रुक !! रुक!!
ठहर! ठहर!! ठहर!!!
हम तो इधर हैं जी
तुम्हारा ध्यान किधर है
मुझे देख – देखकर भी
जाता है तू किधर.
उतरों न जमीं पर !
केवल वायुमार्ग से क्यों करते हो सफर?
कहीं ऐसा भी होता है किसी का
प्रण और मजबून?
सुन! सुन !! सुन!!!
अरे बाबा सुन
मेरी बातें ध्यान से सुन
नहीं करो इसे अनसुन।
तुम्हारा मैं मान करता हूं
तुम्हारा मैं सम्मान करता हूं
थोड़ा नहीं, मनभर करता हूं
पौधों की पत्तियां हरी सी पीली हो गई है
पीली से काली हो गई है
मिट्टी में मिल गई है
और हो गई है वह पत्र- विहीन,
धरती के अरमानों का मत करो खून
देखो, देखो न! धरती का सीना
फट -फटकार हो गया हैं छलनी और चूर।
बचा लो इसे अब
तभी रहेगी यह अक्षुण
आधी से अधिक बीत गया है
महीना अब जून।
सुन ! सुन ! सुन !
मानसून, मेरी बातें सुन
नित्य ही गाता हूं, तुम्हारा ही गुण
रहते हो मग्न, अपने ही धुन
बादलों का भंडार लेकर चलते हो
भारी नहीं लगता बदन को तुम्हारे
यहीं बरसा न दो इसको
मेरे गांव, शहर, प्रदेश, मेरे देश में
आभारी रहूंगा सदा, हर वेश में।
रोक लूंगा राह में तुम्हें
नहीं जाने दूंगा किसी परदेश में
रहो न मगन अपने मान में
प्रतिशोध भी ले सकता हूं चुन – चुन।
इंद्र की सिफारिश चाहिए तो
ला दूंगा, मेरी बातें सुन।
रोज- रोज सुनता हूं:
टी वी पर, मोबाइल पर
अखबारों में, प्रत्येक जुबां पर
अब आ रहे हो,
अब आ रहे हो, तुम !
अरब सागर से सो कर उठे हो
केरल पहुंचे हो
दिल्ली तक आने में कितना समय लगाते हो?
कब पहुंचोगे तुम रंगून।
बहुत हो गई आरजू/ मिन्नत
अब बरस भी लो यहां
झम झम झमा झम
छम छम छमा छम
शीतल हो जाएं धरती का पोर पोर
नदी, नाला, ताल, तलैया, प्राणी और अप्राणी
सब के सब हो जाएं सराबोर
नाच उठे सबके मन का मोर
किसानों के हो जाएं,सपनो का भोर
बैलों के गले की घंटी बजे टून टून
सुन सको तो सुनो रोपाई के गीत
संग- संग साथ- साथ झूमे मन के मीत
मेरी बगिया हो जाए हरी -भरी
दौड़े आएं भौंरे और तितली
जब खिले रंग बिरंगे फूल
जब भर जाएं नए- नए प्रसून।
सुन ! सुन ! सुन !
अरे बाबा, सुन
आओ मेरे भारत में
फूलों का हार पहनाऊंगा
मानसून, मेरी बातें सुन।
******************************************@स्वरचित और मौलिक : घनश्याम पोद्दार, मुंगेर