सुनो प्रियमणि!….
सुनो प्रियमणि!…सरित्पति
मैं नील दृगी घनमाला
किंकर सी….. तुम्हारे
वाष्प से सनी प्रीति को समेट
सदा नन्हीं-नन्हीं शैवालिनी में
उड़ेलती गई
इन उपहार की बूंदों से
जीवन ज्योति जलाती गई
तुम्हारें प्रेम की विरासत पा
शेष से विशेष होती गई
निश्छल अनुराग से अभिभूत
अशेष अनंत होती गई
कितनी सरिताएं
कितने दरिया
इन नयनों से निकली
मधु आसव से परिपूर्ण हो
तुमसे मिलने आए
और तुम्हारे होकर रह गए
बस मैं
सबको तुमसे मिलाते-मिलाते
अकेली रह गई
आज स्वयं को पूर्ण करने की चाहत
इतनी प्रबल हुई कि
तुमसे मिली
प्रत्येक सौगात को
तुम्हें लौटाने की ईप्सा प्रस्फुटित हो गई
नेह निष्ठा सींचित कर
मैं पर्जन्य
आज तुम्हारी दी हुई
प्रणय की प्रत्येक स्नेह बूंदों को
पुनः
तुम्हें लौटा रही हूँ
स्नेह सौगात लेकर
अंतर्मन प्रीत रव संचार कर रही हूँ
तुम्हारी विशालता में
तुच्छ पूंजी जमा कर रही हूँ
तुम्हारे साथ कुछ क्षण साझा कर रही हूँ
इसे आरंभ समझना अंतिम नहीं
मेरे अपांपति मैं तुम्हारी कादम्बिनी……
संतोष सोनी “तोषी”
जोधपुर ( राज )