सुनो पहाड़ की….!!! (भाग – १)
और फिर एक बार हम निकल पड़े। आखिर कब तक व्यक्ति मन को बाँध सकता है? मन तो चचंल व हठी है। एक बार जो ठान ले, बस किसी साधू – सन्यासी सा अटल धूनी रमा अपनी हठ पर डट जाता है। हमारा भी यही हाल था। पिछले कुछ दिनों से जब से अप्रैल का महीना आरम्भ हुआ और मौसम ने सर्दी से गर्मी की ओर करवट लेना शुरू किया, छोटे भाई अर्पण का किसी हिल – स्टेशन की यात्रा पर चलने का आग्रह भी आरम्भ हो गया। पिछले दो सीजन से कोरोना संक्रमण के चलते
शहर से कहीं बाहर जाना नहीं हो सका था। परिस्थितियाँ ही ऐसी हो गयी थीं कि शहर तो शहर व्यक्ति बस घर के भीतर ही कैदी सा हो गया था।
इस वर्ष परिस्थितियों में बदलाव हुआ तो मन रूपी पंछी परिवर्तन की उड़ान हेतु उत्सुक हो, प्रकृति की सुरम्य, घनी छाँव लिए पहाड़ों की ओर चलने को मचलने लगा। अप्रैल की समाप्ति के साथ ही हम ऋषिकेश, हरिद्वार की ओर चल पड़े। अर्पण के अतिरिक्त उसका अभिन्न मित्र अमित भी साथ हो लिया।
प्रकृति का शान्त, सुन्दर वातावरण बचपन से मेरी कमजोरी रहा है। पेड़ – पौधे, जंगल, नदी, पहाड़ सदैव ही मुझसे जैसे कोई अनजाना रिश्ता रखते हैं। जी चाहता है कि ऐसे ही कहीं प्रकृति की गोद में बस कर उसमें ही रम जाऊँ।
अरे नहीं, अपने शौक अथवा रूचियाँ बयान करने का कोई इरादा नहीं है मेरा।
ऋषिकेश जाने के लिए हमने सुबह लगभग १०:३० बजे की ट्रेन पकड़ी और हँसते – हँसाते आपस में बतियाते फुल मूड और मनोरंजन के बीच खाते – पीते हम यानि मैं, अर्पण और अमित कब शाम होने से पहले ही योगनगरी ऋषिकेश स्टेशन पहुँच गये, इसका एहसास हमें ट्रेन के पहिये थमने के साथ ही हुआ। ऋषिकेश का नया रेलवे स्टेशन स्वयं में अलग ही आकर्षण समेटे हैं। शाम के लगभग चार बजे स्टेशन पर कदम रखते ही गर्मी की कड़क चमकीली धूप के बावजूद जब हवा के झोकों ने शरीर को छुआ और अपने चारों ओर हरियाली व सामने खड़े पहाड़ों पर दृष्टि गयी तो मन में एक अनजानी खुशी एवं रोमांच का अनुभव हुआ। होंठ मुस्कुराने लगे और इस मुस्कुराहट ने चेहरे की चमक बढ़ाते हुए मानो यात्रा की सारी थकन मिटा दी। अर्पण और अमित इतने उत्साहित हुए कि अपने – अपने मोबाइल में फोटो क्लिक करने में मगन यह भी भूल गये कि हमें अपने गंतव्य स्थल “आश्रम” जहाँ हमने पहले ही ठहरने हेतु रूम की बुकिंग करा रखी थी, पहुँचना है। मेरे निर्देश पर फोटो खींचना रोककर वह आश्रम की ओर चल पड़े। आश्रम स्टेशन से काफी दूर था, किन्तु उनका विचार था कि वातावरण का आनंद लेते हुए पैदल ही आश्रम तक चला जाये, जिससे शहर तो देखने को मिलेगा, अतः ऑटोरिक्शा लेने का इरादा छोड़ दिया। घूमते हुए रास्ते में प्रकृति के सौन्दर्य का अनुभव करते हुए हमने दो बार ब्रेक लिया। पहली बार रूककर गन्ने का जूस पिया और दूसरी बार सड़क किनारे एक छोटे से ढाबे पर भोजन किया।
लगभग पाँच बजे हम आश्रम पहुँच गये।
रचनाकार :- कंचन खन्ना, मुरादाबाद,
(उ०प्र०, भारत) ।
सर्वाधिकार, सुरक्षित (रचनाकार) ।
(प्रथम भाग समाप्त)
(क्रमशः)
दिनांक :-१४/०६/२०२२.