सुनो ना!
सुनो ना!
आज तुम मुझे एक पुरानी किताब में मिले-
गुलाब के फूल से बेइंतेहा महकते हुए,
बीते वक़्त की वाइन में लिपटे हुए जैसे मिला करते थे तुम मुझसे।
गुलाब में तुम्हारा प्यारा सा चेहरा भी नज़र आया
शायद उदास था इस बात से कि ये किताब हम दोनों ने साथ मिलकर क्यों नहीं खोली?
अब मैं क्या बोलूँ, खामोश रहना ही बेहतर होगा क्योंकि कुछ सवालों के जवाब नहीं होते,
क्योंकि कुछ सवाल, सवाल की तरह ही अच्छे लगते हैं,
क्योंकि कुछ सवाल खुद में ही जवाब होते हैं।
सुनो, तुम्हारा ये गुलाब मेरी कब्र की अमानत है,
अब तो बस इंतेज़ार है मुझे मरने का
तुम्हारे लिए कुछ कर गुज़रने का।
सोनल निर्मल नमिता